होली आई रे कन्हाई रंग बरसे......सुना दे जरा बाँसुरी '



सुरेखा शर्मा लेखिका /समीक्षक


लो फिर आया फागुन और होली की मस्ती सब पर छाने लगी ।रंगोत्सव मनाने की तैयारियां शुरू हो गई । 'होली ' शब्द सुनते ही अनेक छवियां रंंग बिरंगी मन में उभरने लगी।उत्सव की मौज -मस्ती ,अबीर-गुलाल और हड़दंग की सोच मन मेें  उछाल मारने लगी।
          'हर स्पन्दन में जागा यौवन
          सखी री! ऐसा आया फागुन'
देखा जाए तो सच में ही फागुन की बहती बयार,पेड़ों से फूटती कोंपलें,गुलाबी मौसम,फसल पकने को तैयार मानव मन को उल्लास के हिलोरे देने के लिए काफी है।ऐसे में ताल हो, गीत हो,लय हो और रंग हो तो फिर होली तो स्वयं ही आ गयी समझो।धरती रंगीली ,आसमान गुलालमय ,रंगों से भरी पिचकारियों के बीच मन झूम कर यही कहे-"कान्हा फिर खेलन आइयो होरी।" 
देखा जाए तो होली केवल उत्साह और आनंंद का वार्षिक उत्सव नहीं है, बल्कि सच्चे अर्थ में लोक जीवन से जुड़ा एक ऐसा पर्व है जिसमें मिट्टी और रंग दोनों मिले हुए हैं। होली के दो दिन के पर्व में पहले धूल-मिट्टी से खेला जाता है जिसे धुुुुलैंंडी या धूलवंंदन कहा जाता है और फिर खेला जाता है रंग गुलाल अर्थात् रंग -पर्व 'होली' ।
           


सदियों से चली आ रही है होली ।देखा जाए तो हमारे सभी पर्वों और त्योहारों का संबंध ऋतुओं से है। होली का भी।इन ऋतुओं का जीवन चक्र से विशेष संबंध है या यूं  कहा जाए कि  हर ऋतु कोई न कोई पर्व लेकर आती है तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी। पूरे विश्व में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहां प्रकृति  स्वयं पर्व आगमन का संदेश लेकर आती हो।प्रकृति और पर्व एक दूसरे के पूरक हैं ।इसलिए हमारे सभी पर्वों का ऋतुओं के साथ गहरा संबंध है । ये पर्व हमारे भीतर की नकारात्मकता को दूर    सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर सामाजिकता के बोध को जीवंत रखते हैं ।होली ऐसा ही पर्व है। उष्मा का प्रतीक है । शीत के अंत और ग्रीष्म में प्रवेश का संंगम है। श्रृंगार का पर्व   भी है तो इसे मदनोत्सव भी कहा जाता है।                                                            
  होलिकोत्सव गेंहू और  चने का नयी फसल का स्वागत, गरमी के आगमन का सूचक, हँसी -खुशी और मनोरंजन का अनूठा त्योहार है।ऊंच-नीच,अमीर-गरीब,जाति-वर्ण का भेद-भाव  भुलाकर सभी  प्रसन्न मन से एक-दूसरे के गले मिलते और गुलाल, चन्दन, रोली,रंग-अबीर लगाते हैं।यह वैदिक कालीन और अति प्राचीन त्योहार है ।यह पर्व  ऋतुराज बसन्त का पर्व है।वसंंत पंचमी के दिन से ही इस त्योहार की शुरुआत हो जाती है। इस त्योहार का रिश्ता कई धार्मिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा हुआ है। इतिहास के विभिन्न कालों में अनेक परम्पराएं जुड़ती चली गयी। मुगल काल में भी इस पर्व पर संध्या समय संगीत मेला लगता था।लाल किले के पीछे से लेकर राजघाट तक होली मेला लगता था।इस दिन शहंशाह व राजकुमारों को भी नहीं बख्शा जाता था।बड़े उत्साह व उमंग के साथ सभी मिलकर रंगीली पोटलियां प्यार के साथ एक दूसरे पर डालते थे।
                   


होली लोकोत्सव है।इसे उत्तर भारत में होरी,महाराष्ट्र में होली या शिमगा, गोवा में शिग्मा या शिम्गो और दक्षिण में मदन-दहन के नाम से जाना जाता है । देशकाल की परिस्थिति के अनुसार फाल्गुन की पूर्णिमा से लेकर तो पंचमी तक यह त्योहार मनाया जाता है ।आर्यों के त्योहारों का प्राचीन  व अर्वाचीन इतिहास नामक पुस्तक में श्री ऋग्वेद इस त्योहार के विषय में लिखते हैं-शालिवाहन शब्द  संवत की मास गणना के अनुसार फाल्गुन, वर्ष का अंतिम मास होता है और भविष्य पुराण में कहा गया है कि फाल्गुन मास में फाल्गुनोत्सव मनाना चाहिए ।अतः कई स्थानों पर शुक्ल नवमी से पूर्णिमा तक यह उत्सव  बड़े उत्साह व उमंग से मनाया जाता है ।
                     होली मनाने का ढंग  लगभग सभी जगह मिलता- जुलता सा ही है।  होली के पर्व की कुछ परम्पराएं व कथा रूप से पूरे देश में प्रचलित हैं।जिनमें से मुख्य हैं 'होलिका दहन' कहीं पर नई फसल के आगमन. से तो कहीं पर भक्त प्रहलाद द्वारा अपनी बुआ को अग्निदहन कर डालने पर यह पर्व प्रचलित है।इस पर्व का मुख्य आकर्षण 'होलिका दहन' है। इस होलिका  दहन का उद्देश्य  कोई -कोई  पौराणिक काल में होलिका या होला का ढूंढा और पूतना जैसी राक्षसनियां,डायनियां या जो चुडैलें गाँव में चुपके से प्रवेश कर बच्चों को  सताती थीं तो सभी ग्रामवासी मिलकर मारते -पिटते और आग लगाकर जला देते थे ।कहीं-कहीं इस पर्व को शंकर द्वारा 'मदन-दहन' की कथा से भी जोड़ा जाता है।
                 


होली' पूरे देश में प्रसिद्ध है।ब्रज भूमि पर यह त्योहार महीनों चलता है। कहीं-कहीं होली पूर्णिमा के पहले आने वाली माघी पूर्णिमा के दिन गाँव के बीच में या किसी चौक पर एक अरंड का पेड़ खड़ा कर दिया जाता है ।इस पूर्णिमा को दांडी पूर्णिमा कहा जाता है ।इसके बाद होली के लिए लकड़ी, कंडे,उपले जमा करने शुरू कर दिए जाते हैं। गांव-गांव, गली-गली में पूर्व निर्धारित स्थानों पर होली दहन की व्यवस्था की जाती है।ढप,ढोल,नगाड़े ,य,करताल,झाल बाजे के साथ गीत गाए जाते हैं।होली महोत्सव से सम्बन्धित गाना- बजाना बसंत पंचमी से ही शुरु हो जाता है।इस नाच -गाने की घोषणा होते ही गांव के नर- नारी,बच्चे ,बूढ़े सब निर्धारित जगह पर पहूंच जाते हैं।सब मिलकर गाना-बजाना करते हैं।
             


अगले दिन दुल्हैंडी जिसे फाग भी कहा जाता है खेला जाता है।होली का नाम आते ही बरसाने की  लठ्ठमार होली का दृश्य सामने  आ जाता है।एक लोक गीत में भी कहा गया है-  "कान्हा बरसाने में आ जइयो, बुलाए गयी राधा प्यारी। "
             बरसाना गांव राधा का जन्म स्थल है। बरसाने में एक ऊंचे टीले पर राधा का मन्दिर है।बरसाने में पहले समाज गायन होता था।कहा जाता है इस गायन में गायकों पर गुलाल व टेसू के फूलों से बनाया गया सुगंधित रंग डाला जाता था।उसके बाद रंग से भीगे हुए सभी लोग नंद के लाला के जयकारे लगा उठते और बरसाने की गलियों में पहुंच जाते ,जहां बरसाने की महिलाएं हाथों में लाठियां लिए हुए होती थी।वे लाठियां चलाती और पुरुष अपनी ढालों से स्वयं की रक्षा करते।यह खेल दो तीन घंटे तक चलता।दशमी तिथि को यही दृश्य नंद गांव के मंदिरों व गलियों में भी होता है।इस दिन लाठियां नंद गांव की बहु -बेटियों के हाथों में होती हैं।
होली के गीत प्राय: श्री कृष्ण और राधा की लीलाओं को आधार मानकर रचे जाते हैं।श्री कृष्ण को ब्रज का खिलाड़ी ,रसिया कहा जाता है ।गोपिकाओं पर ग्वाले  रसिया बनकर अपनी रंगभरी पिचकारी चलाते हैं और गोपिकाएं कह उठती हैं-'मत मारो शयाम पिचकारी ,मोरी भीगी चुनरिया सारी।
ससुर सुनेंगें देंगे गारी, सास सुनेंगी,लाख कहेगी।
मत मारो श्याम पिचकारी।"
             


 भारत के प्रत्येक भाग में होली किसी- न-किसी रूप में मनाई जाती है।बंगाल में फाल्गुन की चतुर्दशी को भगवान श्री कृष्ण के मन्दिर के निकटवर्ती स्थलों पर कागज,कपड़े तथा बांस से मनुष्य की प्रतिमाएं बनाई जाती हैं और उनके पास छोटी-छोटी पर्णकुटिया बनाई जाती है।संध्या समय उन प्रतिमाओं के सम्मुख यज्य का आयोजन किया जाता है तत्पश्चात् भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति उन पर्णकुटियों में स्थापित की जाती है।यथाविधि उनका पूजन कर उनको अर्ध्य अर्पित किया जाता है और अग्निकुंडों से अग्नि लेकर बनाई हुई प्रतिमाओं को जलाया जाता है।जिस समय प्रतिमा दहन होता है उस समय भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति लेकर जलती हुई प्रतिमा की सात बार परिक्रमा की जाती है और इसी के साथ संध्या समय के णमारोह का समापन हो जाता है।दूसरे दिन प्रात:काल भगवान श्रीकृष्ण के विग्रह को एक झूले पर सुसज्जित करते हैं तथा ग्राम पुरोहित उसे मंत्रोच्चार के साथ झूलन कराता है।इस अवसर पर समारोह में लोगों द्वारा मूर्ति पर अबीर-गुलाल की वर्षा की जाती है।बाद में पुजारी उस अबीर-गुलाल को उठाकर उपस्थित जन समूह के मस्तक पर टीका लगाता है।फिर दिनभर रंग खेला जाता है तथा अबीर-गुलाल से धरती आकाश लाल हो उठते हैं। होली और कृष्ण पर्याय  रहेे हैं,एक दूसरे के । इसी संदर्भ में अलौकिक होली दर्शाता एक पद है---
            कैसी होरी मचाई रे कन्हाई 
           अचरज लखियो न जाई।
           उत्तरप्रदेश के पश्चिमी अंचल में इस दिन कवियों की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं।पंजाब में कुशतियों के दंगल होते हैं ता महिलाएं अपने घर के द्वारों पर स्वस्तिक चिह्नों को अंकित करती हैं।गुजरात में होली जलने के बाद की राख से गौरी की प्रतिमाएं बनाकर उनकी अराधना करती है।बिहार में युवक अपने ग्रामों की सीमा से बाहर निकलकर जलती मशालों के माध्यम से वहां की पथ वीथिकाओं को प्रकाशमान करते हैं,जिसका अर्थ होता है वे अपने ग्राम से दरिद्रता को दूर भगा रहे हों।बिहार में पूर्णिमा की रात को होली जलाने की प्रथा है।इसके चारों ओर लोग एकत्र होते हैं और हरे गेंहू और चने के जैसे कच्चे अन्न को अग्नि की लपटों में भून कर खाते हैं और दूसरे दिन रंगों से खेला जाता है।
उत्तरप्रदेश के कुछ भागों में राम और सीता को झूले पर बैठाकर झांकी निकाली जाती है। होली का राजा बनाकर पालकी में बैठाकर घुमाने की भी प्रथा है।जो केवल बिहार के हजारीबाग अंचल के अतिरिक्त और कहीं नहीं है।
गुजरात में होलिका का पुतला जलाकर उसका जुलूस निकाला जाता है।बाद में उसका दहन किया जा जाता है।दक्षिण भारत में होली पर्व को 'काम दहन पर्व' के नाम से जाना जाता है।इस पर्व द्वारा काम को भस्म किए जाने की स्मृति में सम्पन्न किया जाता है।
              तमिलनाडू में दोलोत्सव होता है,परन्तु होली के एक मास बाद।
भारत के अनेक प्रदेशों में यह भी कहा जाता है कि जिस दिशा में होलिका की लपटें उठ रही हों अथवा जिस ओर उसके जलने के बाद राख फैल जाए,उस दिशा में फसल की पैदावार अच्छी होती है। होली पर्व का कृषि के साथ भी संबंध माना गया है।कहीं-कहीं तो होलिका दहन के पश्चात बची हुई राख को खेत खलिहानों में इसी विश्वास के साथ बिखेरा जाता है कि यह राख फसलों की कीड़ों आदि से रक्षा करती है।जिन वृक्षों पर फल नहीं लगते उन पर भी यह राख डाली जाती है।
         


बीकानेर की डोलची मार होली भी सम्पूर्ण भारतवर्ष में अपनी विशेषता लिए हुए है।हरियाणा में भी होली का त्योहार पूरे जोश व उल्लास से मनाया जाता है।फाल्गुन शुरु होते ही गावों में महिलाएं गलियों में एकत्र होकर रात के समय गाना- बजाना करती हैं।जो होली जलने तक चलता है।होली पर्व पर महिलाएं अपने बच्चों के सुख समृद्धि के लिए सारा दिन व्रत भी रखती हैं।पूजा अर्चना के बाद ही व्रत खोलती हैं।इस प्रकार एक दूसरे पर रंग डाल कर फाग खेलते हैं और  उमंग से होली पर्व मनाते हैं।
            होली के प्रभाव से कोई नही बच पाया है।धर्म संप्रदाय, जाति-पाति  आदि की दीवारों को रंगों की फुहार कब ढहा देती हैं कोई नही जान पाता।भिन्न-भिन्न स्थानों पर,  भिन्न-भिन्न धर्म व प्रदेशों के लोगों के मनाने के कारण भले ही अलग हों ,लेकिन मूल भावना एक ही होती है आपस में प्रेम और सद्भावना का संदेश ।आज होली पर्व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बना चुका है।कोई किसी भी देश का नागरिक हो,लेकिन होली के रंगों के कारण विदेशों में भी  वह होली के दिन भारतीय दिखाई देता है ।रंगों का वैविध्य  होली पर्व का प्राण है। भारतवर्ष का होली पर्व  अपनी रंगीननियों के कारण  संपूर्ण  विश्व को अपने रंग  अपनी संस्कृति और उसकी रौनक में बदल लेता है और यही  इस होली पर्व की वैश्विक सांस्कृतिक विरासत है। बरसों से चली आ रही रीत के हिसाब से आज भी ग्वाल बालों को बरसाने में होली खेलने आने का निमंत्रण भेजा जाता है ।खास गोपिकाओं का रूप धरे महिलाएं नंदगांव में निमन्त्रण देने जाती हैं।मंजीरे और ढोलकी की थाप पर ब्रज के लोकगीत गाने वालों की मंडली अपनी तान छेड़ देती है------आज बिरज में होरी रे रसिया •••••
होरी रे रसिया  बरजोरी रे रसिया ••••।


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