'माँ नहीं मिलती दोबारा '


सुरेखा शर्मा स्वतंत्र लेखन /समीक्षक


सुबह-सुबह फोन की घंटी घनघना उठी। फोन पर कंपकंपाती आवाज  सुनते ही रिसीवर हाथ से छूट गया। इतनी जल्दी ? ऐसा कैसे हो सकता है ••••?  गाड़ी में बैठते ही,  'ड्राइवर गाड़ी तेजी से चलाओ।' जबकि ड्राइवर अपनी  ओर से गाड़ी भगा ले जा रहा था ।मुझे कुछ  नही सूझ रहा था। दिल में दर्द की टीस -सी उठ रही थी ।माँ सच में  हम सब को छोड़कर चली गईं?अब कभी  नहीं मिलेंगी •••••? नहीं •••नहीं ••   ऐसा नहीं हो सकता? कल  तो मिल कर  आई थी।कितनी बातें कर रही  थीं । जब उन्होंने कहा ,'' बहुत जीवन जी  लिया  मैंने ,और कितना जीऊँगी ?" कितना खराब लगा था हमें । पिता जी भी बोले ,"सच में ही,  अब तो  मुक्ति मिल  जाए।कितनी तकलीफ झेल रही है तुम्हारी माँ •••।


मुझसे भी अब देखा नही जाता ।" नहीं••••नहीं ,जरूर कोई धोखा हुआ है ,मां जल्दी ही फिर से स्वस्थ हो जाएंगी ••••झटके  से गाड़ी रुकी । ••माँ की निष्प्राण देह आंगन के बीच रखी हुई थी ।शांत वातावरण में चिड़िया की चूं -चूं  व कबूतर की गुटर गूं  सुनाई दे रही थी, जो पिछले दिन का डाला हुआ दाना चुग रहे थे, तभी पशुशाला में बंधी गाय के रंभाने की आवाज आई ।माँ के पार्थिव  शरीर के पास गली के दोनों कुत्ते भी  आकर बैठ गए थे। बेजुबान होते हुए भी वे अपना दुख प्रकट कर रहे थे,जो उनकी   आंखों में झलक रहा था ।लगता था जैसे माँ के जाने की खबर सबको मिल गई हो। माँ का नियम था पक्षियों को दाना डालना, सूर्य को और तुलसी को जल देना,पहली रोटी गाय को और आखिरी कुत्ते को देना । माँ के बीमार होने पर भी यह सब चल रहा था जिसे भाभी बखूबी निभा रही थी।किसी कारणवश भूल भी  जाती तो माँ याद दिला देती ।आज वे सब चिंताओं से मुक्त होकर चिरनिद्रा में सो चुकी थी।अब उन्हें किसी के सुख- दुख से कोई लेना-देना नहीं था।सुबह होते ही जिस घर में गहमा-गहमी शूरू हो जाती थी आज वहां सब शांत था।कोई स्कूल जाने के लिए नहीं मचल रहा था, ना ही किसी को  ऑफिस के लिए देर  हो रही थी,उसी समय एक गाड़ी  आकर रुकी जिसमें से दीदी बाहर आई और भागकर माँ की निष्प्राण देह से लिपटकर बिलख पड़ी ।


उन्हें देखकर हम सभी बहन -भाई फूट -फूट कर रो पड़े ।पिताजी  हम सबको हृदय से लगाकर सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, 'बच्चो, तुम्हारी मां ने तो मुक्ति पा ली।' कहते हुए   पिताजी की  आंखें भरी हुई थी,पर वे स्वयं को कमजोर नही दिखाना चाहते थे।इतना तो हम सब जानते थे  कि जब से माँ की लाईलाज बीमारी का पता पिता जी को लगा था तब से वे अंदर- ही- अंदर टूट गये थे, पर स्ववं को मजबूत दिखा रहे थे । रिपोर्ट आने पर पता चला कि मां को ब्रेन ट्यूमर है और मरीज ज्यादा समय तक नहीं रह सकता ।न्यूरोसर्जन ने एक्सरे की रिपोर्ट देते हुए कहा, "सबसे पहले तो आप अस्पताल में एडमिट करने की फार्मल्टिज पूरी करें ,ऑप्रेशन कब होगा  आपको बता दिया जाएगा  डॉक्टर के कथनानुसार ऑपरेशन  छोटा ही था । माँ में बहुत हिम्मत थी, ऑपरेशन का नाम सुनकर   से वे बिलकुल नहीं घबराई।उसके बाद भी  उन्होंने अपनी कोई परवाह नहीं की ।पिताजी को छोड़कर हम सब यही समझते रहे कि ऑपरेशन  सफल हो गया है , अब चिंता की कोई बात नही ।तबीयत संभलने के बाद  अस्पताल से घर  आने लगे तो डॉक्टर ने कहा,  'ट्यूमर उनके  अनुमान से कहीं अधिक गहरा था हम उसकी जड़ तक नहीं पहुंच पाए ।बीस दिन बाद दूसरा आप्रेशन और करना पड़ेगा।'


ऑपरेशन की बात माँ ने सुन ली थी । अपना दर्द छिपाते हुए भाभी से बोली,"मैं अब बिल्कुल ठीक हूँ, मुझे घर ले चलो ?" मां की तबीयत में सुधार देखकर मैं दो दिन के लिए ससुराल आ गई थी,लेकिन  अगले दिन ही फोन करके बुला लिया ।जब पहुंची तो देखा बुआ जी, बड़ी दीदी, भैया -भाभी ,पिताजी को  खामोश से बैठे देखा तो एक बार तो मैं घबरा ही गयी थी। माँ दीवार की ओर मुंह करके  करवट लेकर आराम से लेटी हुई थी । दीदी ने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, "मां  लो ,आ गयी तुम्हारी लाडली, कर लो जी भरकर बातें ।" माँ ने  धीरे-धीरे करवट बदली और  मुस्कुराते हुए सिर पर हाथ फेरने लगी।डॉक्टर जांच करने  आए तो उन्होंने कहा, 'घबराने की कोई बात नही, माता जी अब ठीक हैं ।' माँ भी स्वयं को अच्छा महसूस कर रही थी । उन्होंने डाक्टर से कहा," मुझे पता है डाक्टर साहब ,मैं थोड़े दिन की ही मेहमान हूँ ।" "नहीं माँ जी,   ऐसी कोई बात नही है ,आप बेकार में ही घबरा रही हैं" "नहीं डाक्टर साहब, मैं मरने से नहीं डरती।मौत तो एक दिन आनी ही है,पर मैं जिन्दगी के बचे हुए दिन  अपने परिवार के साथ रहकर अच्छी तरह जीना चाहती हूँ ।"


मां की सहन शक्ति देखकर डाक्टर भी हैरान  थे।अब तो डॉक्टर भी नही चाहते थे कि उनका दूसरा ऑपरेशन करें ।वह जानते थे कि माँ नहीं  बचेगी फिर क्यों उन्हें असहनीय कष्ट दिया जाए।हमें  उनकी शान्तिपूर्ण अन्तिम यात्रा के दिनों  में साथ देना चाहिए ।लेकिन कुछ डॉक्टर जल्दी से हार मानने को तैयार नहीं थे।उन्होंने माँ को दूसरे ऑपरेशन के लिए तैयार कर लिया।ऑपरेशन का दिन आया माँ को फिर से कष्टकारी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा ।सिर पर थोड़े से बाल थे  वे भी काट दिए गए ।सभी ने भगवान से माँ के ठीक होने की प्रार्थना की और ऑपरेशन थियेटर में ले जाने की  अनुमति दे दी । डॉक्टर्स ने ऑपरेशन करना शूरू किया तो उन्होंने देखा कि रोग बहुत बढ चुका है ।आपसी विचार विमर्श करके निर्णय लिया गया कि जितने दिन जीना है  इसी तरह जीने दिया जाए न कि ऑपरेशन करके मौत की घड़ी को और नजदीक लाया जाए।यही सोचकर उन्हें  थियेटर से बाहर भेज दिया गया । चार पांच दिन में ऊपरी टांके सूख गये और माँ को अस्पताल से   घर ले आए ।घर पर उनकी देखभाल की सारी जिम्मेदारी भाभी ने ले ली ।नर्स के होते हुए भी भाभी ही माँ को नहलाती-धुलाती थी।जब भाभी  माँ को नहला- धुला कर नाश्ता करवाती तो उन्हें  देखकर लगता ही नहीं था कि वे किसी असाध्य बीमारी से लड़ रही हैं?


घर  आकर तो जैसे वे पुन: जी  उठी। तब नहीं लगता था कि माँ के  आंचल की छांव बस  दो महीने भी नहीं मिलेगी। घर में मिलने वाले  आते-जाते रहते ।माँ से मिलने के बाद सभी ड्राइंगरूम में बैठकर जलपान करते और चले जाते ।माँ अपने कमरे में भाभी के सिवाय किसी को ज्यादा देर तक नहीं  रहने देती थीं।बेटियों से ज्यादा अपनी बहू से प्यार करती थीं  ।भाभी ने भी उनकी सेवा करने में कोई कमी नहीं छोड़ी थी।बिना किसी शिकायत के दिन -रात  एक कर दिया था। जिन्दगी भर मेहनत करने वाली, दबंग महिला जिसने अपनी पूरी  जिन्दगी कार्यरत रहकर  स्वाभिमान से जी हो वह बेबस  बिस्तर पर पड़ी रहकर दूसरे के अधीन कैसे रह सकती थी?मन -ही -मन दुखी रहती ।उनके मन की टीस चेहरे पर दिखाई देने लगी थी।धीरे-धीरे माँ ने खाना-पीना कम कर दिया था। उनकी खाल  हड्डियों से चिपकती जा रही थी । उनके हाथ पर छोटा-सा जख्म हो गया था। भाभी धीरे-धीरे उस पर क्रीम लगाती तो माँ मन-ही-मन  आशीष की झड़ी लगाती रहती थी,यह हम उनकी  आंखों में पढ़ लेते थे । कभी-कभी मैं भी  उनके सिर में तेल लगाने बैठ जाती,  उनकी हथेलियों को  अपने हाथों में लेकर अपने गालों से स्पर्श करते हुए एहसास होता जैसे मैं बचपन में लौट आई हूं ,उसी पल यह आभास भी होता कि कुछ दिन बाद इन हाथों को छू भी नहीं पाऊंगी •••?,माँ के माथे को सहला भी नहीं सकूंगी?यह सोचते-सोचते मेरी रुलाई फूट पड़ी ।


मैं  नहीं चाहती थी कि कोई मेरे आंसू देखे।मैं कमरे से बाहर निकल आई।जो भी मिलने आता अपनी अपनी बीमारी  की राम कहानी सुना कर चलता बनता।कोई कहता यह रोग तो है ही ऐसा जिसका कोई इलाज नहीं, ऊपर से उम्र भी तो हो गयी है । मैं सोचने लगी  अभी माँ की उम्र ही क्या हुई है, मात्र 68 वर्ष ही ना!क्या कोई बच्चा चाहेगा उसकी माँ उसे हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ कर चली जाए?और मेरी मां तो थी ही  स्वाभिमानिनी और दृढ़ महिला ।जिस पर हम सबको गर्व था।कितनी महान होती हैं  माँ ।   अपने दुखों को छिपाकर जीती रहती है,और एक दिन चिरनिद्रा में सो  जाना••• क्या यही नियति है उसकी ? माँ के दुख दर्द से हम अनजान क्यों बने रहते हैं? कभी भी उसके सुख- दुख के बारे में जानने की कोशिश  नहीं करते, क्या माँ मशीन होती है•••?  वह जब तक काम में लगी रहती है तो हम उसे स्वस्थ समझते रहते हैं,कभी जानने की कोशिश नही करते कि उन्हें भी कभी आराम की जरूरत है । पता नहीं मन में  क्या -क्या ख्याल आ-जा रहे थे , तभी दीदी ने इशारे से  बुलाया और बूआजी व भाभी के साथ मिलकर माँ को लाल चुन्दरी औढाने को कहा ।


माँ की  अंतिम यात्रा की तैयारी हो चुकी थी।हमने माँ को इस रूप में कभी नहीं देखा था,क्योंकि वे बहुत ही सीधी ,सरल व सादगी में रहने वाली महिला   थीं।उन्हें किसी श्रृंगार की जरूरत नहीं थी।आज उनके माथे पर लाल बिंदी और मांग में सिंदूर भरा देखकर लगा  माँ कभी  इसी तरह सजी हुई दुल्हन बनकर  अपने पैरों से चलकर  इस घर में आई होंगी •••पर आज ••••••••तभी माँ की कही बात सहसा याद हो आई कि वह सुहागन जा रही है उसका दुल्हन की तरह श्रृंगार  होना चाहिए।सच में ही माँ साक्षात् देवी  प्रतिमा लग रही थी।  अभी उनके शांत सौन्दर्य को जी भर के निहारती तभी कानों में जो  स्वर पड़ा  उसको सुनने को शायद किसी का भी मन तैयार नहीं था •••'राम- नाम सत्य है ••••प्रभु नाम सत्य है ••••'माँ की  अंतिम विदाई हो रही थी।हम भाई-बहन एक दूसरे को सान्त्वना देते हुए एक-दूसरे के  आंसू पोंछने लगे।तभी भाभी ने सबको गले लगाया  और सिर पर हाथ फेरते हुए रूंधे गले से बोली, "माँ  नहीं मिलती दोबारा।" बहते आंसुओं को पौंछते
हुए   माँ के कमरे में ले गईं••।

 


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