अपने-अपने खेमे


डॉ० मुक्ता,                                                                                                                                              राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत / वरिष्ठ साहित्यकार 



चार-पांच वर्ष पहले एक आलेख पढ़ा था, अपने- अपने खेमों के बारे में... जिसे पढ़कर मैं अचंभित व अवाक् रह गई कि साहित्य भी अब राजनीति से अछूता नहीं रहा। यह रोग सुरसा के मुख की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है... थमने का नाम ही नहीं लेता। लगता है, यह सुनामी की भांति सब कुछ लील जाएगा। हां! दीमक की भांति इसने साहित्य की जड़ें तो खोखली कर ही दी हैं; रही-सही कसर वाट्सएप व फेसबुक आदि ने पूरी कर दी है। हां! मीडिया का भी इसमें कम योगदान नहीं है। वह तो चौथा स्तंभ है न, अलौकिक शक्ति से भरपूर–जो पल-भर में किसी को अर्श से फ़र्श पर लाकर पटक सकता है और फ़र्श से अर्श पर पहुंचा सकता है.... जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण आप सबके समक्ष है।


हां! चलो, हम बात करते हैं --- देश की एक प्रसिद्ध पत्रिका की, जिसमें साहित्य के विभिन्न खेमों का परिचय दिया गया था...विशेष रूप से चार खेमों के ख्याति-प्राप्त, दबंग संचालकों के आचार-व्यवहार, दब-दबे व कारस्तानियों को भी उजागर किया गया  था, जिसका सार था 'आपको किसी न किसी खेमे के तथाकथित गुरु की शरणागति अवश्य स्वीकारनी होगी, अन्यथा आपका लेखन कितना भी अच्छा, सुंदर, सटीक, सार्थक, मनोरंजक व समाजोपयोगी हो; आपको मान्यता कदापि नहीं प्राप्त हो सकेगी। इतना ही नहीं, उसका यथोचित मूल्यांकन भी सर्वथा सम्भव न होगा।'


यदि आप साहित्य में उस मुक़ाम को प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको आवश्यकता व दरक़ार होगी... साष्टांग दण्डवत् प्रणाम व नतमस्तक होने की; सम्पूर्ण समर्पण की; तन-मन-धन से उनकी सेवा करने की तत्परता प्रदर्शित करने की; जो इसमें अहम् भूमिका अदा करती है और आपकी अगाध श्रद्धा भी इसमें प्रमुख दायित्व का निर्वहन करती है। दूसरे शब्दों में यह है– सामाजिक मान्यता प्राप्त करने  व सफलता पाने का एकमात्र उपादान... इस तथ्य से तो आप सब अवगत हैं कि 'जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे' अर्थात् उनकी करुणा-कृपा व निकटता पाने के लिए आपको संबंधों की गरिमा को त्याग, मर्यादा को दरकिनार कर, आत्मसम्मान को दांव पर लगाना होगा; तभी आप उनके प्रिय व कृपा-पात्र बनने में सक्षम हो पायेंगे। इस उपलब्धि के पश्चात् चंद रचनाएं अथवा एक पुस्तक के प्रकाशित होने पर भी आप विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो सकते हैं, क्योंकि इस संदर्भ में पुस्तक-प्रकाशन की अहम् भूमिका नहीं होती। आपको प्रिंट-मीडिया व इलेक्ट्रॉनिक-मीडिया में अच्छी कवरेज मिलेगी तथा विभिन्न काव्य-गोष्ठियों व विचार-गोष्ठियों में आपको सुना व सराहा जाएगा। आपकी चर्चा केवल समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं में ही नहीं होगी, रेडियो व दूरदर्शन वाले भी आप की राह में पलक-पांवड़े बिछाए प्रतीक्षारत रहेंगे। देश-प्रदेश में आपका व आपकी कीर्ति का गुणगान होगा।
 
इतना ही नहीं, आप पर एम•फिल• व पीएच•डी• करने वालों की कतार लगी रहेगी। देश के सर्वोच्च सम्मान आपकी झोली में स्वत:आन पड़ेंगे। हां! आप को पीएच•डी• ही नहीं, डी•लिट्• तक की मानद उपाधि प्रदान कर, विभिन्न विश्वविद्यालय स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करेंगे। आपकी कृति पर टेलीफिल्म आदि बनना तो सामान्य-सी बात होगी। बड़े-बड़े संस्थानों के संयोजक व सरकारी नुमाइंदे आपकी प्रथम कृति पर संगोष्ठियां करवा कर, स्वयं को सौभाग्यशाली व धन्य समझेंगे। आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे लोग अपने तथाकथित आला साहित्य के कर्णधारों को प्रसन्न करने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते।


इन विषम परिस्थितियों में आप भी मंचासीन होकर, विद्वत्तजनों को धूल चटा कर, सातवें आसमान पर होते हैं और फूले नहीं समाते। आप सिद्ध कर देते हैं कि आजकल प्रतिभा, साम, दाम दंड,भेद के सामने पानी भरती है, उनकी दासी है। बस! दरक़ार है… आत्मसम्मान को खूंटी पर टांग; दूसरों के बारे में कसीदे गढ़ने की; अपने अहं को मार स्वयं को ज़िंदा दफ़न करने की; उनकी अंगुलियों पर कठपुतली की भांति नाचने की; उनके संकेत-मात्र पर उनकी इच्छानुसार कुछ भी कर गुज़रने की; उनके कदमों में बिछ जाने की; उनके हर आदेश को शिरोधार्य समझ अनुपालना करने की… यदि आप उनमें से चंद अहर्ताएं अथवा योग्यताएं ही रखते हैं; तो आप रातों-रात महान् बन जाते हैं और आप की तूती दसों दिशाओं में मूर्धन्य स्वर में गूंजने लगती है।


अपने-अपने खेमों के संयोजक, संचालक व सूत्रधार आप से वफ़ादारी की अपेक्षा रखते हैं और उनके शिष्य एक-दूसरे पर नज़र भी रखते हैं कि अमुक प्राणी कहीं, किसी दूसरे खेमे के बाशिंदों से मिलता तो नहीं? वह कहां जाता है, क्या करता है, उसकी दिनचर्या क्या है और वह उनके प्रति वफ़ादार है या नहीं? यह जीवन का कटु यथार्थ है कि हर बेईमान व्यक्ति वफ़ादार सेवक चाहता है, जो दिन-रात उसके आसपास मंडराता रहे, उसकी चरण-वंदना करे, उसकी कीर्ति व यश को दशों-दिशाओं में प्रचारित व प्रसारित करे; उसे महिमामंडित करने में कोई भी कसर न उठाकर रखे– जैसे मलय वायु के झोंके समस्त दूषित वातावरण को आंदोलित कर सुवासित कर देते है। विभिन्न कार्यक्रमों में भीड़ जुटाना, वाहवाही करना, वन्स मोर के नारे लगाना आदि... उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है। इतना ही नहीं, उसके घर का पूरा दारोमदार, तथाकथित शिष्य अथवा अनुयायी के कंधों पर रहता है। पत्नी से लेकर बच्चों की हर इच्छा-आकांक्षा को तरज़ीह देना, उन्हें शॉपिंग कराना; पिकनिक व सिनेमा दिखाने ले जाना; उस घर के लिए पूरा साज़ो-सामान जुटाना... उनका नैतिक दायित्व समझा-स्वीकारा जाता है। यदि वह बाशिंदा पूर्ण निष्ठा से, नि:संकोच यह सब कर गुज़रता है, तो वह मनचाहा प्राप्त कर लेता है और उसे अल्प समय में आकाश की बुलंदियां छूने से कोई नहीं रोक सकता।


चलिए! इन ख़ेमों की कारगुज़ारियों से तो आप अवगत हो ही गए हैं, अब पुरस्कारों के बारे में विवेचन-विश्लेषण कर लेते हैं। बहुत से बड़े-बड़े प्रतिष्ठान व सरकारी संस्थानों में तो फिफ्टी-फिफ्टी की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। यदि आप इस समझौते के लिए तैयार हैं, तो सम्मान आपके कदमों में बिछने को बेक़रार मिलेगे।


वैसे भी इसका एक और उम्दा विकल्प है...आप नई संस्था बनाइए; हज़ारों साहित्यकार मधुमक्खियों की भांति आपके आसपास मंडराने लगेंगे। रजिस्ट्रेशन के नाम पर संस्थापक महोदय आजकल सम्मान- राशि, आयोजन के खर्च से भी कहीं अधिक बटोर लेते हैं। आजकल उनका यह गोरखधंधा भी पूरे यौवन पर है...खूब फूल-फल रहा है। संस्थापक होने के नाते आप हर कार्यक्रम में केवल आमंत्रित ही नहीं किये जाते, मंचासीन भी किए जाते हैं। अक्सर बड़े-बड़े साहित्यकार उनके सम्मुख अनुनय-विनय व करबद्ध प्रार्थना करते देखे जाते हैं कि वे अपनी संस्था के बैनर तले, उनकी पुस्तक का विमोचन करवा दें या उन्हें किसी संगोष्ठी में भावाभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करें। चलिए यह भी आधुनिक प्रचलित  ढंग है... सर्वाधिक साहित्य-सेवा करने का।


मुझे इस तथ्य को उजागर करने में तनिक भी संकोच नहीं है कि आज भी राष्ट्रीय सम्मान इससे अछूते हैं, जिनमें राष्ट्रपति सम्मान शीर्ष स्थान पर हैं। वास्तव में यह आपकी साहित्य-साधना, कर्मशीलता व विद्वत्ता का वास्तविक मूल्यांकन है। यह अमावस की अंधेरी रात में पूर्णिमा के चांद की भांति व घने काले बादलों में, बिजली की कौंध की मानिंद है। जब आपको सहसा यह सूचना मिलती है, तो आप चौंक जाते हैं... विश्वास नहीं कर पाते और कह उठते हैं, 'ऐसा कैसे संभव है... और आप इसे क़ुदरत का करिश्मा मानने पर विवश हो जाते हैं।' वैसे आजकल हर सम्मान के लिए आवेदन करना आवश्यक होता है, परंतु यह प्रतिभा व साहित्यिक अवदान को देख कर प्रदान किया जाता है।
 
हां! राज्य-स्तरीय व राष्ट्रीय पुरस्कारों के अंतर्गत कई बार किसी संस्था का अध्यक्ष या शीर्ष कोटि का साहित्यकार आपके नाम की संस्तुति कर देता है; जिससे आप बेखबर होते हैं...वास्तव में यह पुरस्कार आपके जीवन की सच्ची साधना का प्रतिफल होता है, जिसे धरोहर के रूप में आप संजोकर रखना आपको सुक़ून प्रदान करता है। हां! इसके एक पक्ष पर प्रकाश डालना अभी भी शेष है कि इन सम्मानों की चयन-प्रक्रिया में अफसरशाही या राजनीति या कोई योगदान है या नहीं?


मैं अपने अनुभव से नि:संकोच कह सकती हूं कि यदि आप निष्काम भाव से, तल्लीनता-पूर्वक, पूर्ण समर्पण भाव से अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं तो आप स्वतंत्र होते हैं, हर निर्णय स्वेच्छा से ले सकते हैं और निरंकुश होकर अपने कार्य को अंजाम दे सकते हैं। हां! इसके लिये अपेक्षा रहती है... प्रबल इच्छाशक्ति की, सकारात्मक सोच की, पूर्ण समर्पण व कर्त्तव्यनिष्ठता  की। यदि आप नि:स्वार्थ भाव से निष्काम कर्म करने का मादा रखते हैं, तो आप हर विषम परिस्थिति का सामना करने में सक्षम होते हैं। आपको कोई भी कर्त्तव्य-पथ से विचलित नहीं कर सकता। यदि आप स्वार्थ का त्याग कर, संघर्षशील बने रहते हैं, तो आपको उसका अप्रत्याशित- कल्पनातीत फल अवश्य प्राप्त होता है, क्योंकि परिश्रम कभी भी व्यर्थ नहीं जाता। यदि आपके कदम धरती पर और नज़रें आकाश की ओर स्थिर रहती हैं, तो आप अपनों से और अपनी जड़ों से सदैव जुड़े  रहते हैं। सो! इस स्थिति में आप हर प्रकार की आबोहवा में पनप सकेंगे और आपको कोई भी अपने लक्ष्य से विमुख नहीं कर सकेगा। विपरीत हवाएं व आंधी-तूफ़ान भी आपका रास्ता नहीं रोक पाएंगे और न ही विभिन्न खेमों के मालिक आपको नतमस्तक होने को विवश कर पाएंगे।


समय के साथ परिवर्तित होती है सत्ता..बदलते हैं हालात, अहसास व जज़्बात और क़ायम रहता है विश्वास, तो आप निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होते रहते हैं, क्योंकि आत्मविश्वास...संतोष व संतुष्टि का संवाहक होता है और इसकी रीढ़ व धुरी होता है। इसके साथ ही मैं अपनी लेखनी को विराम देती हूं ...इसी आशा के साथ कि हमारे अदम्य साहस, उत्साह, धैर्य व आत्मविश्वास के सम्मुख विसंगतियां व विषम परिस्थितियां स्वतः ध्वस्त व नष्ट हो जाएंगी; अस्तित्वहीन हो जाएंगी और सब को विकास के समान अवसर प्राप्त होंगे। इसी आशा और विश्वास के साथ...सबके मंगलमय उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न संजोए...
                                                    
                                                       


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