भाषाएँ बचेंगी तो साहित्य और संस्कृति बचेगी'- सुधाकर पाठक

हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं पर विशेष रुचि रखने वाले, भारतीय भाषाओं पर शोध करने वाले एवं भाषाओं पर कार्य करने वाले लेखकों एवं शोधार्थियों के लिए ‘भाषा-गत-अनागत’, ‘हिन्दी: विमर्श के विविध आयाम’ एवं ‘भारतीय भाषाएँ: चिंता से चिंतन तक’ नाम से अब तीन महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ पुस्तकें उपलब्ध हैं। भारतीय भाषाओं पर केंद्रित इन तीन महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं के संरक्षण, संवर्धन एवं प्रचार-प्रसार को समर्पित संस्था ‘हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी’ ने किया है।



‘भाषा-गत-अनागत’ पुस्तक 31 विद्वान लेखकों का भाषा पर केंद्रित साक्षात्कारों का संग्रह है। ‘हिन्दी: विमर्श के विविध आयाम’ पुस्तक हिन्दी भाषा पर केंद्रित लेखों का संग्रह है, तो वहीं ‘भारतीय भाषाएँ: चिंता से चिंतन तक’ पुस्तक भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित भारतीय भाषाओं, उपभाषाओं एवं बोलियों पर केंद्रित लेखों का संग्रह है। भाषा किसी भी संप्रभु राष्ट्र के चार प्रमुख आधारों में से एक गंभीर और महत्त्वपूर्ण विषय है। राष्ट्रीयता, स्वाभिमान, मौलिकता, राष्ट्रीय गौरव, एकता एवं अखंडता आदि जैसे विषयों की जड़ें भाषा से ही जुड़ी होती हैं, इसलिए भाषा को अति संवेदनशील अंग के रूप में अध्ययन किया जाता है। किसी राष्ट्र की सम्पन्नता विकास के पूर्वाधारों पर आधारित होती है किन्तु राष्ट्र की समृद्धता एवं आत्म निर्भरता उसकी भाषा संपदा पर टिकी होती है। हमारे विचारों, भावों एवं संवेदनाओं की अभिव्यक्ति से लेकर हमारी विभिन्न सांस्कृतिक धरोहरों, सामाजिक मूल्य-मान्यताओं, परंपराओं, सभ्यताओं, रीति-रिवाजों, आस्थाओं, संस्कारों एवं साहित्य का भाषा से प्रत्यक्ष एवं घनिष्ठ संबंध है। भाषा के प्रभावित होते ही यह सभी विषय भी स्वत: प्रभावित होते हैं। 



साधारणतया: आम नागरिकों में भाषा चेतना अति न्यून है, क्योंकि उनकी पहली प्राथमिकता रोजगार है इसीलिए सार्वजनिक स्थलों पर भाषा पर चर्चा ही नहीं होती। आज भूमंडलीकरण की व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षा का मूलभूत उद्देश्य परिवर्तित हो चुका है। शिक्षा को केवल रोजगार से जोड़ दिया गया है और शिक्षा का उद्देश्य यांत्रिक दक्ष शक्ति का निर्माण करना है। प्रत्येक वर्ष विभिन्न शिक्षण संस्थानों द्वारा लाखों युवाओं का यांत्रिकीकरण/मशीनीकरण किया जाता है। इस तरह देश की तैयार जनशक्ति की सोचने, समझने, नवीन कल्पना करने की मौलिकता का क्षरण किया जाता है क्योंकि हमारी शिक्षार्जन की भाषा और रोजगार की भाषा अंग्रेजी है। अंग्रेजी एक अंतरराष्ट्रीय भाषा है जिसमें ज्ञान-विज्ञान, तकनीक, चिकित्सा आदि का अथाह भंडार है और निरंतर इसमें नए-नए आविष्कारों का भंडारण हो रहा है। लंबे समय तक अंग्रेजों ने विभिन्न देशों को अपना उपनिवेश बनाये रखा और वहाँ की शिक्षा नीति एवं भाषा नीति को प्रभावित कर अपने अनुकूल बनाये रखा। इस तरह अंग्रेजी एक व्यापक अंतरराष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में उभरकर आयी। विश्व के अन्य देशों के साथ संपर्क स्थापित करने तथा ज्ञानार्जन करने हेतु अंग्रेजी एक सशक्त भाषा है अतः इसकी उपयोगिता और महत्त्व को सीधे-सीधे नकारा नहीं जा सकता।


किन्तु विभिन्न भाषाविदों एवं शिक्षाविदों के अनुसार विदेशी भाषा में देश के नागरिकों को शिक्षित करना अप्राकृतिक माध्यम है। भाषा वैज्ञानिकों का मत है कि जिस भाषा में शिशु अपनी माँ का दूध पीता है उसी भाषा में उसको शिक्षा दी जानी चाहिए क्योंकि यह उसके लिए सहज और ग्राह्य है। इसीलिए मातृभाषा में शिक्षा देना शिक्षा का सर्वोत्तम माध्यम है।  भारत एक बहु-भाषी देश है । यहाँ प्रत्येक राज्य की अपनी भाषा, बोलियां एवं उप-भाषाएँ हैं। स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई में जो स्व: की भावना थी उसमें स्वभाषा प्रमुख रूप से मुखरित थी। स्वभाषा के रूप में  स्वतंत्रता सेनानियों ने हिन्दी को प्रतिस्थापित किया क्योंकि हिन्दी बहुल क्षेत्रों में बोली, समझी और पढ़ी जाती थी। हिन्दी कई राज्यों की मातृभाषा होने के साथ-साथ  लगभग सभी राज्यों की संपर्क भाषा के रूप प्रचलित थी। अतः महात्मा गाँधी, मदन मोहन मालवीय, दयानंद सरस्वती आदि ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की पहल की किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस विषय ने एक नया मोड़ लिया जिसके चलते संविधान सभा ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के बजाय राजभाषा घोषित किया तथा अंग्रेजी को द्वितीय आधिकारिक भाषा, बावजूद इसके अंग्रेजी ने आज हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं के अस्तित्व के लिए जटिल समस्याओं को जन्म दिया है जिसके कारण कई भारतीय भाषाओं का अस्तित्व ही समाप्त हो चुका है तथा कई अभी संकट की स्थिति में हैं।


किसी देश की उन्नति उस देश की शिक्षा नीति पर आधारित होती है। जब देश की शिक्षा नीति अंग्रेजी उन्मुख हो तो देश की भाषा नीति भी उसी स्तर पर प्रभावित होगी। प्राथमिक स्तर से ही शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने तथा अंग्रेजी को एक मात्र रोजगार की भाषा का एकाधिकार देने, मातृभाषा शिक्षा का प्रावधान ना होने, राष्ट्रभाषा का अभाव होने, त्रिभाषा सूत्र का उचित व्यवस्थापन ना होने जैसे आदि कारणों से भारतीय भाषाएँ आज विभिन्न चुनौतियों का सामना कर रही है। हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं के इन ज्वलंत विषयों को उठाते हुए ‘हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी’ ने भाषाओं पर केंद्रित महत्त्वपूर्ण संदर्भ पुस्तकों का प्रकाशन किया है।  ‘भाषा-गत-अनागत’ पुस्तक में देश के 31 समकालीन जाने-माने एवं ख्यात साहित्यकारों, वरिष्ठ पत्रकारों, मीडियाकर्मियों, भाषाविदों, शिक्षाविदों, प्रशासनिक सेवा अधिकारियों, विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपतियों, प्रतिष्ठित सरकारी संस्थाओं के उच्चाधिकारियों, विभिन्न देशों के राजनयिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि के भाषा से संबंधित साक्षात्कारों को सम्मिलित किया गया है।


इन साक्षात्कारों के माध्यम से अकादमी ने हिन्दी भाषा के उन्नयन, संरक्षण, संवर्धन एवं प्रचार-प्रसार को प्रभावित करने वाले कारक तत्वों को प्रमुखता से उठाया है चाहे वो हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने की संभावनाएं हो, प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम हो, नई शिक्षा नीति की प्रासंगिकता हो, त्रिभाषा सूत्र की अवधारणा और उसकी वास्तविकता हो, आठवीं अनुसूची का विधान और उसके पीछे की राजनीति हो, माध्यमिक एवं उच्चतर शिक्षा में भारतीय भाषाओं की चुनौतियां हो, रोमन लिपि एवं हिंगलिश के दुष्परिणाम हो, हिन्दी साहित्य का भविष्य एवं पाठकों की अभिरुचि हो, हिन्दी को ज्ञान-विज्ञान से जोड़ने एवं रोजगार की भाषा बनाने की बात हो, हिन्दी के वैश्विक धरातल पर उपस्थिति हो या फिर संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने की मुहिम हो, लगभग सभी जीवंत विषयों को केंद्र में रखते हुए हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी ने इन साक्षात्कारों को संकलित किया है। इसी तरह ‘हिन्दी: विमर्श के विविध आयाम’ पुस्तक में हिन्दी भाषा के विविध पक्षों पर विश्लेषणात्मक एवं शोधपरक लेखों को संकलित किया गया है।


इन लेखों के माध्यम से हिन्दी की वर्तमान स्थिति, विद्यालय स्तर पर शिक्षा का माध्यम, हिन्दी में रोजगार की संभावनाएं एवं समस्याएं, राजभाषा के रूप में हिंदी की राष्ट्रीय स्वीकृति, हिन्दी की उपभाषाएँ एवं उसकी बोलियों की स्थिति, हिन्दी पत्रकारिता एवं संचार माध्यमों में हिन्दी की चुनौतियां, आठवीं अनुसूची में हिन्दी की बोलियों एवं उपभाषाओं को सम्मिलित किये जाने से होने वाले दुष्परिणाम, दक्षिण भारत में हिन्दी के विरोध के स्वर और उसकी वास्तविकता, विश्व के अन्य देशों में हिन्दी का पठन-पाठन, हिन्दी दिवसों, पखवाड़ों एवं विश्व हिन्दी सम्मेलनों की भूमिका तथा इनका मूल्यांकन जैसे संवेदनशील विषयों की विस्तृत विवेचना की गयी है। ‘भारतीय भाषाएँ: चिंता से चिंतन तक’, पुस्तक में आठवीं अनुसूची में सम्मिलित भारतीय भाषाएँ, उपभाषाएँ एवं बोलियों के लेखों को संकलित किया गया है। इन लेखों में आठवीं अनुसूची में सम्मिलित भाषाओं की स्थिति, उसका प्रभुत्व क्षेत्र, इतिहास, लिपि, व्याकरण आदि का विश्लेषण किया गया है, साथ ही इन भाषाओं का साहित्य, संस्कृति, शिक्षा के क्षेत्र में इनकी वर्तमान स्थिति, अनुसूची में सम्मिलित होने के बावजूद भी लुप्त होने की खतरनाक स्थिति पर भी विवेचन किया गया है।


कुल मिलाकर यह तीन पुस्तकें भारतीय भाषाओं की दशा और दिशा को व्याख्या करती हैं तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के 72 सालों बाद भी भारतीय भाषाओं के अनसुलझे पटों को खोलती हैं जिनका संपादन अकादमी के संस्थापक अध्यक्ष एवं ‘हिन्दुस्तानी भाषा भारती’ त्रैमासिक पत्रिका के संपादक श्री सुधाकर पाठक ने किया है। यह तीनों पुस्तकें -आपस मे अंतरसंबंधित हैं जो भारतीय भाषाओं के संरक्षण के पक्षधरों, समर्थकों, लेखकों, साहित्यकारों, पत्रकारों, शिक्षकों, शोधार्थियों और भाषा-नीति निर्माताओं के लिए उपयोगी एवं लाभप्रद है।


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