रक्षाबंधन धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में समर्थ माना जाता है



लाल बिहारी लाल 
भारत एकता  में  अनेकता  का  देश  है  जहां   कई भिन्न -भिन्न  धर्मों एंव  मतों  के  लोग  रहते  हैँ।  यहां  अनेक  धार्मिक त्योवहार  भी  मनाये  जाते है। उन्ही त्योवहारों  में  एक  त्योवहार  है  -रक्षाबंधन-रक्षा  बंधन हिन्दुओं एवं  जैनियो  का  एक  महत्वपूण  त्योवहार  है। जो भाई-बहन  के  रिश्तों  पर  आधारित  है। इसे  हर  साल  सावन  मास  के  पूर्णिमा  के  दिन मनाया  जाता  है। रक्षा  बंधन  में रक्षा  सूत्र  या  राखी  का  बहुत ही महत्व है।


ये  राखी  आजकल अलग-अलग  रुपों में  देखने  को  मिल  रहा  है।  कही  धागे  का  तो  कही  सोने का तो  कहीं  चांदी  के  भी  मिल  रहे  है। यह  पर्व भाई-बहन  के  रिश्तों  को मजबूत  बनाता  है।  बहनें  भाई  को  इस  दिन रक्षा  के  रुप में  भाई  के  कलाई  पर राखी  या  रक्षा सूत्र  बांधती  है। औऱ  ललाट  पर  रोली का  तिलक  लगाकर मिष्ठान  खिलाती  है  और  आरती  उतारती  है, आरती  उतारते  समय  प्रभू  से अपने  भई  की  रक्षा  के  लिए प्रार्थना करती  है। और  भाई  अपने  बहन  को  रक्षा  का  वचन  देता  है।  इतिहास में इसके  कई  उदाहरण विद्यमान  है। 


राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे  तब भगवान इन्द्र घबरा कर देवो  के  गुरु बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति इन्द के हाथ पर बाँध दिया और  युद्ध में देव  विजयी  हुए।   संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। ऐसा विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है। पौरानिक  काल  में राजा  जब  युद्ध  पर  जाते  थे तो  क्षत्राणियां उन्हें  रक्षा-सूत्र या  राखी बांधती  थी। दूसरी कथा  इतिहास मे कृष्ण और द्रौपदी की कहानी प्रसिद्ध है, जिसमे युद्ध के दौरान श्री कृष्ण की उंगली घायल हो गई थी,


श्री कृष्ण की घायल उंगली को द्रौपदी ने अपनी साड़ी को  फाड़कर  एक टुकड़ा बाँध दिया था, और इस उपकार के बदले श्री कृष्ण ने द्रौपदी को किसी भी संकट मे द्रौपदी की सहायता करने का वचन दिया था।  औऱ  समय  आने  पर  द्रौपदी को  चीर हरण से  बचाया  भी। स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान विष्णु वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा माँगने पहुँचे। गुरु शुक्राचार्य  के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकनाचूर कर देने के कारण यह त्योहार बलेव नाम से भी प्रसिद्ध है ।  कहते हैं एक बार बाली रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया।


भगवान विष्णु के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और बली ने  उपहार स्वरुप विष्णु  को  लौटा  दिया।   औऱ  लक्ष्मी जी अपने पति भगवान  विष्णु को अपने साथ लेकर  विष्णुलोक  आ गयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।  तभी  से यह  प्रथा  भाई  बहन  के  रक्षा के रुप  में  प्रसिद्ध  है। आधुनिकता के  बाद  भी  इस  प्रथा को  धूमधाम  से  मनाया  चाता  है।


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