कविता // उन्मुक्त हो जाने दो
डॉ• मुक्ता
आज मुझे चंद लम्हे एकांत में रहने दो
मन में उठते झंझा को शांत हो जाने दो
बरसों से दबा दावानल सुलग रहा
मन का लावा आक्रोश बन फूट रहा
मलय बयार से ज़ख्मों को सहलाने दो
वीरान गुलशन फिज़ा भी आज उदास है
मन चातक को जाने क्यों तुम्हारी आस है
वीणा के तारों को अब झंकृत हो जाने दो
भवसागर में नैय्या मेरी हिचकोले खा रही
साहिल तक पहुंचने की उम्मीद टूटी जा रही
तोड़ समस्त बंधन मुझे उन्मुक्त हो जाने दो
समाज की विभीषिकाओं से त्रस्त हृदय मेरा
देख दुष्कर्म के हादसे आहत रहता मन मेरा
आज मुझे एकांत के सागर में डूब जाने दो
भ्रष्टाचार रूपी दानव सुरसा की मानिंद पसर रहा
लूट-खसोट, फ़िरौती, हत्या का साम्राज्य बढ़ रहा
आज कृष्ण का सुदर्शन चक्र दुनिया में लहराने दो
★★★
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