सच बोलने के लिए उकसाता हूं,घास चरने के लिए नहीं कहता-ओम थानवी 


जयपुर - वरिष्ठ पत्रकार, सम्पादक और वर्तमान में हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, जयपुर के कुलपति ओम थानवी ने बताया कि वह ३७ वर्ष पहले भी प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में उपस्थित थे। हालांकि वह दौर इतना भयावह और हिंसक नहीं था। चुप्पियों को तोड़ने पर ज़ोर देते हुए थानवी ने कहा - मैं बोलने के लिए उकसाता हूँ। घास चरने के लिए नहीं कहता,बोलने की बहुत ज़रुरत है।


समाज में शोषित वर्ग की पीड़ाओं पर चर्चा हुई, वहीं आज़ाद कलम के दायरे पर संवाद हुआ। फासीवाद, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक प्रतिरोध विषय पर सत्र हुआ, वहीं भारतीय भाषाओं में प्रगतिशील साहित्य विषय पर व्यापक चर्चा हुई। 



सत्र में राजकुमार ने बताया कि वर्तमान समय में लेखक संघ सिकुड़ते जा रहे हैं और जनता विभाजित होती जा रही है। इस समय की मांग है कि विकल्पधर्मिता के साथ साहित्य लेखन हो। लेखक के लिए आवश्यक है कि वह जो भी रचे अथवा लिखेपाठक वर्ग के साथ उसका जुड़ाव दिखे। लेखन सामान्य जन के संघर्षों तथा समस्याओं के बारे में होतो ही इसे सार्थक लेखन कहा जा सकता है। वहींअपने बात को आगे बढ़ाते हुए राजकुमार ने कहा कि इस समय में समाज में एक बच्चा सबसे अधिक दमितवंचित तथा शोषित सदस्य है। इन हालातों को समझने तथा इन पर लिखने की आवश्यकता है।



समाज के शोषित वर्ग के बारे में अपने विचार रखते हुए स्वर्ण सिंह ने कई पंजाबी कवियों की रचनाओं का उल्लेख किया। उन्होने कौमी एकता की बात करते हुए कई ऐसे कवियों - कहानीकारों का जिक्र किया, जिनकी रचनाओं में दलितों के संघर्षों की दास्तां हैं। सिंह ने उग्र स्वर में कहा कि इस समय में जब सामान्य जन को रोटी की ज़रुरत है, उसे माला पकड़ाई जा रही है।


सत्र में राम सागर सिंह ने कहा कि जब आप संघर्ष करें, माइक्रो अथवा छोटे स्तर पर शुरुआत करें। संघर्ष करने तथा अपनी बात कहने के लिए कोई तय फॉर्मूला नहीं है। नाटक, कविता, कहानी अथवा अपनी कला के माध्यम से मौजूदा हालातों का विरोध करें। वहीं, राजाराम भादू ने कहा कि पिछड़ी भाषाओं और समुदायों के साथ कार्य किए जाने की ज़रुरत है। उन्होने कहा कि अपनी भाषा में ही साहित्य रचें, जिससे विलुप्त होती भाषाएं अपने अस्तित्व को बचा सकें।



सत्र को आगे बढ़ाते हुए हरी राम मीणा ने कहा कि आदिवासी समुदाय सबसे अधिक संकट में है। देश में विकास के मुद्दे पर प्रश्न करने वालों को विकास विरोधी तथा राष्ट्रद्रोही का तमगा दे दिया जाता है। मीणा ने आदिवासी वर्ग की कई ज्वलन्त समस्याओं पर अपने विचार रखे। उन्होने डायन हत्या जैसी गम्भीर सामाजिक बुराई की आलोचना करते हुए, अदम गोंडवी की एक कविता से अपनी विचारों को विराम दिया -


मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको


आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को


मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको।।


सत्र में परंजॉय गुहा ठाकुरता, ओम थानवी, उदय प्रकाश, वीरेन्द्र यादव, एस पी शुक्ला, बाल मुकुन्द सिन्हा, उमा और रूपा सिंह ने अपने विचार रखे।


देश के विख्यात पत्रकार, राजनीति टिप्पणीकार तथा लेखक परंजॉय गुहा ठाकुरता ने कहा कि किसी समय में यह कल्पना नहीं की थी कि इंटरनेट हमारी ज़िंन्दगी में इतना अहम् हो जाएगा। सोशल मीडिया के कई प्लेटफॉर्म - वॉट्सएप, फेसबुक, गूगल, इंस्टाग्राम, अमेजॉन और नेटफ्लिक्स का कद इतना बढ़ चुका है कि हमारी समूची दुनिया इस में सिमट कर रह गई है। १३५ करोड़ लोगों वाले देश में, व्यक्तियों से अधिक सिम मौजूद हैं। इन आंकड़ों से समझा जा सकता है कि सिम और मोबाइल क्रांति हमारे जीवन में कितना घुसपैठ कर चुकी है। वॉट्स एप यूनिवर्सिटी पर दिन भर में जितनी सूचनाएं भेजी जाती हैं, उनमें आधी से अधिक गलत और भ्रामक होती हैं। ऐसे में लोगों को सतर्क होना चाहिए कि वे जो पढ़ रहे हैं, कितना गलत है, कितना सही। 


लोकप्रिय लेखक, कथाकार, कवि तथा फिल्मकार उदय प्रकाश ने कहा कि इन दिनों झूठ की मेन्यूफेक्चरिंग हो रही है। एक प्रकार से, गुलामी हमारी आदत हो चुकी है। हर क्षेत्र में सेंसरिंग हो चुकी है और हम सब में यह डर पनपने लगा है कि क्या लिखें अथवा क्या बोलें। हालांकि यही वह डर है, जो लोगों को एक - दूसरे से जोड़ रहा है। प्रकाश ने स्थिति की भयावहता को भांपते हुए कहा कि समूची राजनीति घृणा, अहिंसा और द्वेष पर आधारित हो चुकी है। देश भर के युवा दिशाहीन होते जा रहे हैं और वे अपनी क्षमताओं का उचित उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। प्रकाश ने उनकी एक कविता सुना कर लोगों को भाव विभोर कर दिया - “प्राथमिक पाठशाला की पहली कक्षा के बच्चों को 


क माने कमल 


क माने कबूतर


क माने कलम


बच्चे तो वहीं रटते और दुहराते हैं


संसार भर के, ब्रह्माण्ड भर के बच्चों की नींद, स्वप्न या अंतरात्मा की आवाज़


सुनाई देगी एक अजीब - सी - गूंज


दशो - दिशाओं से गूंजेगी एक आवाज़ 


क माने कश्मीर”।। 


बाल मुकुन्द सिन्हा ने कहा कि इस समय लेखकों के सामने तीन बड़े संकट खड़े हैं - राजनीतिक संकट, गहराता पूंजीवाद और लोगों में पढ़ने के प्रति बढ़ती अरुचि। यह सत्य है कि युवा पीढ़ी इन दिनों पठन - पाठन से बहुत दूर होती जा रही है। ऐसे में लेखकों - रचनाकारों से अपेक्षा है कि वे नई और ऐसी विधा तलाशें, जो उनके विचारों को अधिकाधिक लोगों तक पहुंचा सके। 


सत्र में वीरेन्द्र यादव ने मुखर स्वर में कहा कि समाज के वंचित - शोषित वर्ग की बात कहने वाली किताबों को प्रतिबन्धित किया जा रहा है। कांचा इलैया सरीखे लेखकों की पुस्तकों पर रोक लगाई जा रही है। आदिवासी समुदाय और जाति जैसे विषयों पर लिखना वर्जित और दण्डनीय हो गया है। सोचने की ज़रुरत है कि यह किस तरह के हालात हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ ही अभिव्यक्ति से जुड़े खतरे और जोखिम भी उठाने होंगे। आत्म - निरीक्षण और आत्म - अवलोकन की गहन आवश्यकता है। 


सत्र में पूर्व आईपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय ने वर्तमान सरकार द्वारा लागू किए गए UAPA कानून में किए गए संशोधनों पर चर्चा करते हुए कहा कि इस कानून में रोलेट एक्ट की झलक मिलती है। इस कानून के तहत किसी भी व्यक्ति को सरकार आतंकी घोषित कर उसे जेल भेज सकती है और उसके बैंक खातों और सम्पति को सीज कर देती है, जिसके चलते उस व्यक्ति को न्यायिक प्रक्रिया का सामना करने में भी दिक्कत होगी।


नारायण राय ने कहा कि अंग्रेज सरकार द्वारा 1860 में लागू किए गए कानूनों में जो भी खामियां रही हो, लेकिन उस कानून से देश में पहली बार सामाजिक न्याय का सिद्धांत शुरु हुआ। इससे उच्च और निम्न वर्ग के लोगों को कानून, सुनवाई और सजा में बराबरी का दर्जा मिला। उन्होने सम्मेलन में आए सभी लेखकों से इस बिल का अध्ययन करने और विरोध दर्ज कराने की अपील की। इसी सत्र में डॉ. रामशरण जोशी ने नेटफ्लिक्स पर मौजूद फिल्म लैला पर चर्चा करते हुए बताया कि किस तरह जातिवाद और धर्म को साबित किया जा रहा है। उन्होने बताया कि इस काम में सोशल मीडिया को प्रमुख हथियार के रूप में उपयोग किया जा रहा है।


डॉ. जोशी ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि दंतेवाड़ा की लोक देवी दंतेश्वरी देवी के मंदिर के ठीक सामने लगभग 250 फीट की हनुमान जी की मूर्ति लगाकर पूजा - अर्चना शुरु की गई है। वहीं दंतेवाड़ा में सरकार द्वारा लगाई गई महाराणा प्रताप और चेतक की मूर्ति पर सवाल खड़ा करते हुए उन्होने कहा कि उनके स्थान पर आदिवासी लोकदेवताओं और महापुरुषों के बारे में सरकार को ध्यान देना चाहिए। भोले आदिवासियों में राष्ट्रवाद के नाम से मानसिक घुसपैठ की कोशिशें लगातार की जा रही हैं।


इसी सत्र में इप्टा के राकेश कुमार ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता के ज़रिए आम आदमी और कश्मीर के मौजूदा हालात पर प्रकाश डालते हुए कहा कि इस विषय पर हर जगह चर्चा होनी चाहिए। लेखक मणिन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने सम्बोधन में कहा कि लम्बे समय से किसी पुस्तक या लेखक को प्रतिबंधित नहीं किया गया है, क्योंकि अब सम्पादक भी सरकारी होते जा रहे हैं। उन्होने देश के बहुभाषायी और बहुसांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुए कहा कि ऐसे हालात में रचनात्मक पक्ष पर ध्यान दिया जाना चाहिए।


उन्होने कहा कि इस संकट से घबराने के बजाय हमें अपने विचारों और शब्दों को अधिक मुखर करना चाहिए। लेखक गीतेश शर्मा ने आवारा पूंजीवाद की परिभाषा देते हुए कहा कि इस दौर में केवल दो घराने पूंजीवाद का प्रतीक बन चुके हैं। इसके साथ ही उन्होने मनुवाद की आलोचना करते हुए जातिवाद को समाज की सबसे बड़ी कमजोरी बताया। उन्होने कहा कि 70 वर्ष के बाद भी हमारी जातियां एक साथ नहीं बैठ सकी हैं, यह हमारे लेखन की कमजोरी है। इस दौर में युवाओं के साथ चर्चा करने की आवश्यकता पर उन्होने खासा जोर दिया । 


इस सत्र में गुजराती लेखक ईश्वर सिंह चौहान ने कहा कि गुजरात में पहले सत्य के साथ प्रयोग किया गया, अब झूठ के साथ प्रयोग किया जा रहा है। गांधी जी की धरती पर अब नए लोगों का कब्जा है। इसके साथ ही चौहान ने महात्मा गांधी के व्यक्तव को दोहराते हुए कहा कि लेखक को सरल भाषा में लिखना चाहिए, जिससे उसका लेखन अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सके। वहीं वर्तमान परिस्थिति पर चुटकी लेते हुए उन्होने गुजराती कहावत भी लोगों को सुनाई “जहां का राजा व्यापारी, वहां की प्रजा भिखारी”।


पंजाबी लेखक सरबजीत सिंह ने कहा कि भारतीय परिदृश्य में अलग-अलग भाषाओं के साहित्य को अलग - अलग समस्याओं से गुजरना होता है, वहीं उन्होने अपने क्षेत्र की समस्याओं पर खुलकर बात की। बिहार से आए लेखक रविन्द्रनाथ राय ने देश की वर्तमान परिस्थितियों पर बात करते हुए कहा कि भारत में आज फासीवाद चरम पर है। जैसे 1936 में प्रलेस की स्थापना से पहले दुनिया में दूसरे विश्व युद्ध की आहट थी. उस दौर में लेखकों ने अभिव्यक्ति की आजादी के लिए प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की। आज भी वैसे ही हालात हम सभी के सामने हैं। ऐसे में हमें फिर से एकजुट होकर फासीवाद के खिलाफ आंदोलित होने की जरूरत है। 


अधिवेशन के तीसरे दिन प्रगतिशील लेखक संघ की चुनाव प्रक्रिया होगीजहां नए अधिकारियों का चयन होगा। शाम को पीपुल्स मीडिया थिएटर एवं राजस्थान फोरम की ओर से नाटक रंगीली भागमती का मंचन होगा। यह एक सामाजिक - राजनीतिक  व्यंग्य नाटक हैजिसका लेखन और निर्देशन अशोक राही ने किया है। 


 


 


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