उत्तराखंड प्राप्ति के बाद विकास की गति बढ़ी है



विजय सिंह बिष्ट 


प्रादेशिक उत्तराखंड की विभिन्न संगठनों और संस्थाओं का निर्माण तो हुआ है किंतु घर गांव से हमारा ध्यान हटता ही जा रहा है। उत्तराखंड सरकार से आग्रह के साथ आशा करते हैं कि पलायन की रोकथाम के लिए उद्योगों का श्रृजन करने की कृपा करें, जिससे बर्तमान युवा शक्ति को रोका जा सके। शिक्षा स्वास्थ्य के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान दे जिसके फलस्वरूप पलायन रुकेगा। 


उत्तराखंड  बनने से पूर्व हम उतर प्रदेश के निवासी थे। उनके शासन काल में व्यवस्थाएं हमारे उत्तराखंड निवासियों को कई बातों में  नहीं सुहाती थी। वित्तीय हो या विकास की गति धीमी थी। कई मार्गो का निर्माण जनता ने स्वयं किया,चौदकोट जन शक्ति मार्ग, रामनगर बैजरों मार्ग जनता की भागीदारी से निर्मित हुए, ऐसे ही कितने मोटर और पैदल मार्गो का निर्माण विना किसी वित्तीय व्यवस्था के किये गये। शिक्षा के क्षेत्र में जनता के द्वारा विद्यालय खोले गए।


जिनकी अस्थाई मान्यता के लिए भी लखनऊ और इलाहाबाद के चक्कर कटने पड़ते थे। विद्यालय प्रवंध समिति को जनता की शरण में जाकर चंदा मांगना पड़ता था। हमें याद है श्रमदान से भवन बनाये गये, हमारे इण्टर कॉलेज में आज भी ग्राम लोदली,ग्राम चोरखिण्डा और लखचौरी के नाम से कमरे बने हैं  जो बर्तमान में करोड़ों रुपए में बनाए जा सकते हैं। ऐसे ही उत्तराखंड के अन्य क्षेत्रों में भी जनता के सहयोग से शिक्षा का प्रबंधन किया गया। विद्यालय के प्रधानाचार्य और शिक्षक न्यूनतम वेतन में कार्य करते थे।एम0ए0एल टी का ग्रेट पे एक सौ पचास रुपए मात्र था, हमने चालीस रुपए मूल वेतन तथा पचास रु0मंहगाई पर काम किया ,कुल नब्बे रुपए में। छात्र और अध्यापक  दूर दराज के होते थे इसलिए छात्रावासों की व्यवस्था थी। गीत भी लगा था "खिर्सू बोर्डिंग लग्यूच निरपड़ी का डांड।" ऐसी जगह बोर्डिंग बना है जहां पानी नहीं है।जल व्यवस्था भी जनता के हाथ थी।दुकानों का अभाव था, रामनगर,दुगड्डा से भेड़ और खचरों से सामान आता था, इसलिए माता-पिता छात्र की सारी व्यवस्था अपने आप करते थे।


पाठ्य पुस्तकें भी दुकानदार लखनऊ आदि शहरों से क्रय करते थे। मेलों में विद्यालयों के लिए दुकानदारों से चंदा मांगा जाता था जो आठ आने रुपया होता था। गीत के बोल होते थे "उठो सोई जनता के नसीबों को जगा दो। विद्या मंदिर आज बना दो"। स्वास्थ्य के लिए भी वैद्यराजों पर निर्भर रहना पड़ता था। सरकारी अस्पताल कई मील दूर पैदल रास्तों पर होते थे। जन जीवन कृषि आधारित था। खेती सोना उगलती थी, किसानों को हल चलाने के लिए लोहे के फाल के लिए लोहा चाहे होता था जिसे गांव का लोहार बना लेता था। कपड़े लिए दुकानदारों की शरण में जाना पड़ता था मलेशिया नाम का कपड़ा,छींट की शुद्ध कपासिय धोती सस्ते दामों पर मिलती थी। खान पान नीरोग्य  अन्न जल पर आधारित था। नौकरी सेना में भर्ती, अध्यापन, पटवारी आदि की ही मुख्य रूप से थी। शहरों में लोग सामूहिक रूप से रहते, रेलवे, और घरेलू नौकरी में ही अधिकतर नौकरी मिलती थी।पढ़ें लिखे लोग दफ्तरों में अच्छी नौकरी में लग जाते थे।


बीबी बच्चे साथ नहीं होते थे। उत्तराखंड प्राप्ति के बाद विकास की गति बढ़ी है सारे शिक्षा संस्थान राजकीय हो गये।छात्र हैं शिक्षक नहीं।,18000, विद्यालय छात्र अभाव में पिछले वर्ष तक बंद किए गए सड़कों का जाल बिछा दिया गया है सुविधाएं मिल रही हैं किन्तु पिछले आंकड़ों के हिसाब से 7000गांव बेचिराग हो चुके हैं। पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा है। बंदरों सुवरों तथा जंगली जानवरों के कारण सोना उगलने वाली धरती वीरान हो चुकी है।
 सिंचाई के साधन बनाए गए हैं नालियां खेतों तक चक्कर काट रहीं हैं लेकिन नदी नाले सूख गए हैं।मात्र धन का अपव्यय है।
स्वास्थ्य सेवाओं का हाल भी डाक्टर हैं दवाई नहीं,दवाई हैं डाक्टर के अभाव में वार्ड वाय  काम चला रहा है। लाभ राजनीति के आंगन में फल फूल रही है। सरकार नया काम और उसका श्रीगणेश करती है तब तक बदल जाती है बदले की भावना से वह अच्छा काम भी बंद हो जाता है। मनरेगा के कारण लोगों में खेती के प्रति उदासीनता नजर आती है।
 


 


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