उत्थान और पतन में मातृशक्ति की भूमिका



विजय सिंह बिष्ट 


उत्थान और पतन में मातृशक्ति की भूमिका सृष्टि का आरंभ जननी और जन्मभूमि की माटी पर ही निर्भर करता है। मां के गर्भ में पोषित श्री राम और रावण एक जैसे ही  उत्पन्न हुए हैं। धरती मां के गर्भ में विशाल वटवृक्ष और झाड़ झंकार भी एक ही तरह से पैदा होते हैं। अन्तर संस्कारों की देन है। वातावरण की उपलब्धता है। रेगिस्तान में जैसे केला नहीं होता वरन् कंटीली वनस्पति होती है उसी प्रकार सुसंस्कार और कुसंस्कारों में योग्य और अयोग्य संन्तति पैदा होती है।जननी और जन्मभूमि दोनों ही प्रेरक हैं इसीलिए कहा गया है
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि


मां और मातृभूमि राम और रावण की जननी ही तो हैं।  कैकेई  का नाम कोई भी अपनी पुत्री को आज भी नहीं रखता।उसका कारण कुचाली मंथरा द्वारा राम को वनवास और भरत को राजगद्दी देना मात्र कलावस्तु नहीं है।वह हमारे अंदर की बृतियों का निरूपण है।फलस्वरूप इसी वनवासी ने राक्षस राज रावण का अंत कर अपने सुसंस्कारों के बल पर मर्यादा पुरुषोत्तम  का पद प्राप्त किया। सीता माता का त्याग , उर्मिला का बलिदान और कौशल्या मां का सतस्नेह ही रामचरितमानस  है।  रामायण और महाभारत का उदघोष नारी शक्ति की ही तो प्ररेणा है। द्रोपदी का यह कहना अंधे के अंधे ही होते हैं कुरुक्षेत्र की रणभूमि बनी कुसंस्कारों में मंदोदरी के सौ पुत्रों तथा गंधारी के सौ पुत्रों का बलिदान  आज भी हमारे समाज में पाया जा सकता है।उस समय संयुक्त परिवारों की ब्यवस्था थी, आज एकल परिवारों में भी योग्य और अयोग्य संन्तति जन्म लेती ही है।


 जमाने में संतानोत्पत्ति कृषि पर आधारित थी। विशाल भू-भाग को इसीलिए उपजाऊ बनाया गया था। जनसंख्या वृद्धि के कारण भूमि कम होती गई और विशाल नगरों का निर्माण होना आरंभ हुआ। पलायन और टूटते संयुक्त परिवार एकल होने लगे हम दो और हमारे दो भी केवल एक ही में संकुचित होने लगा। छिटकते परिवार में आदर और प्यार के साथ सामाजिक ताना बाना भी घटता चला गया। खेती पाती की सामूहिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। उसके कारण भूमि का अधिकांश भाग बंजर हो गया अथवा भवन निर्माण में लाया जाने लगा। इसके मूल में जो लोग शहरीकरण में रच बस गये,वे लगभग अपनों से दूर होते गए, और एक ऐसा वक्त भी आया जब भावी संतति अपने मूल निवास को ही भूल गए ।


एक ऐसी स्थिति भी आई कि बहू बेटियां अपने गांव की अपेक्षा मायका को प्राथमिकता देने लगी।अपनों से संस्कारों की यही दूरियां अलगाव में परिवर्तित होती चली गई। कुछ लोगों का मत है कि पुरुष प्रधान परिवारों में नारी की प्रमुखता आने लगी। इसका परिणाम माता पिता, चाचा चाचियों से भी दूरियां होने लगी। नौकरी और व्यवसाय के कारण आज दूसरे देशों में रहना बसना  वहां की नागरिकता लेना सरल हो गया है। इस कारण भी बृद्ध माता पिता ओल्ड एज होम की शरण में हैं जहां वे अपनी पेंशन पर ही निर्भर हैं भविष्य के गर्भ में सभी को इसी प्रकार गुजरना होगा,ऐसी स्थिति में सुसंस्कारों की आवश्यकता प्रतीत होना आवश्यक है । मातृशक्ति इस परिवर्तन को लाने में सक्षम हो ऐसी आशा की जाती है सौ शिक्षकों में एक मां का स्थान सर्वोपरि है


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