जिन्दगी इक राग है अनुराग है


सुषमा भंडारी


गीत 


जिंदगी इक राग है अनुराग है ।
कौन कहता है कि ये बैराग है


माना कि छाई हुई वीरानगी 
घर में जैसे कैद हो दीवानगी
थम गया है हर शहर और गांव भी
पेट में फिर भी जले क्यूँ आग है


हर पहर और हर घड़ी सोचें यही
आ न जाए वायरस हम में कहीं 
खुद से ही खुद डर के क्यूँ जीने लगे
दिखता खुद में ही भयंकर दाग है


जब से घर में आ गई खामोशियाँ 
पंछियों में छा रही मदहोशियाँ
साफ है आकाश पंछी झूमते
माना कि उनका तो आया फाग है


जिन्दगी इक राग है अनुराग है
कौन कहता है कि ये बैराग है


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 स्वप्न
जब स्वप्न आँख में लिये हुये मैं 
कर्मभूमि पे जाती हूं
उलझी डोरी ये रिश्तों की 
मुझको उसमें उलझाती है
सागर की गहरी तलहट में
यादों के मोती रह्ते हैं
और जीव -जन्तुओं की अनगिन
वो चोटें सहते रहते हैंं
छाले ये पांव के चल - चल कर
तब फूट-फूट कर रोते हैं
तब पीड़ा बनकर गीत हृदय में
सुर- संगीत सजाती है
उलझी डोरी ये रिश्तों की
मुझको उसमे उलझाती है
जब स्वपन आँख में लिये हुये----


पंछी से सीख उड़ान भरूं
जो नभ को माप दिखाता है
अपने नन्हे बच्चों के लिये
दाना वो चोंच में लाता है
घर बार - बार टूटे फिर भी
या बिखरें तिनके इधर- उधर 
जुड़ने का राज गौरैया ही 
हम सब को बतलाती है
उलझी डोरी ये रिश्तों की
मुझको उसमें उलझाती है
जब स्वप्न आँख में लिये हुये-----


ये रिश्ते धड़कन में बसते 
कुछ हो इनको दिल रोता है
इनसे मिलता जो दर्द यहां
जीवन भर दिल ही ढोता है
कर्तव्य मार्ग ही उत्तम है
इसको ही कहते हैं जीना
वो कभी सुखी पाया न यहां
जिसने गैरों का हक छीना
ये मायाजाल है दुनिया का
हर रीत यही सिखलाती है
उलझी डोरी ये रिश्तों की
मुझको उसमें उलझाती है
जब स्वप्न आँख में लिये हुये मैं---


सुषमा भंडारी


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