ग़ज़ल


बलजीत सिंह बेनाम


अब ज़मी पर नहीं रूहों के मिलन की खुशबू
हर जगह से मिली जिस्मों के दहन की खुशबू


छुप न पाएगा मेरी आँखों को ढ़क कर के तू
ख़ूब पहचानता हूँ तेरे बदन की खुशबू


एक मज़दूर के मुँह से ये सुना है मैंने
नींद के वास्ते काफ़ी है थकन की खुशबू


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

"मुंशी प्रेमचंद के कथा -साहित्य का नारी -विमर्श"

गांधी जी का भारतीय साहित्य पर प्रभाव "

बेफी व अरेबिया संगठन ने की ग्रामीण बैंक एवं कर्मियों की सुरक्षा की मांग

प्रदेश स्तर पर यूनियन ने मनाया एआईबीईए का 79वा स्थापना दिवस

वाणी का डिक्टेटर – कबीर