सामाजिक न्याय की लड़ाई आर्थिक न्याय व राजनीतिक न्याय के साथ ही आगे बढ़ेगी

लखनऊ - सामाजिक न्याय के समग्र एजेंडा पर बात करते हुए बहुजन बुद्धिजीवी डॉ विलक्षण रविदास ने कहा कि सामाजिक न्याय की लड़ाई आर्थिक न्याय व राजनीतिक न्याय के साथ ही आगे बढ़ेगी. शासन-सत्ता की संस्थाओं और तमाम क्षेत्रों में आबादी के अनुपात में भागीदारी के साथ ही संपत्ति व संसाधनों के आसमान वितरण व बढ़ती विषमता के खिलाफ न्यायपूर्ण हिस्सेदारी की लड़ाई भी लड़नी होगी. निजीकरण के रास्ते संपत्ति व संसाधनों को मुट्ठी भर लोगों के हवाले किया जा रहा है. बहुजनों की वंचना बढ़ती ही जा रही है. उन्होंने कहा कि सामाजिक न्याय की राजनीतिक पार्टियों का फेल्योर सामने है. इन पार्टियों ने सत्ता में रहते हुए सामाजिक न्याय के साथ न्याय नहीं किया है. हमें नये सिरे से बहुजनों को जगाने, संगठित करने और सड़कों पर संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा.



भागलपुर,लखनऊ. रिहाई मंच, सामाजिक न्याय आंदोलन (बिहार), बिहार फुले-अंबेडकर युवा मंच, बहुजन स्टूडेन्ट्स यूनियन,
सामाजिक न्याय मंच(यूपी), अब-सब मोर्चा सहित कई संगठनों की ओर से शाहूजी महाराज की विरासत को बुलंद करने व सामाजिक न्याय को संपूर्णता में हासिल करने के लिए संघर्ष तेज करने का संकल्प लेने और आरक्षण व सामाजिक न्याय पर जारी चौतरफा हमले के खिलाफ आवाज बुलंद करने के साथ 'राष्ट्रीय सामाजिक न्याय दिवस' मनाया गया.


क्रीमी लेयर के लिए आय की गणना में बदलाव के जरिए ओबीसी आरक्षण पर हमला बंद करो, असंवैधानिक क्रीमी लेयर खत्म करो, आरक्षण के लिए 50 प्रतिशत की सीमा खत्म करो, ओबीसी को आबादी के अनुपात में 54% आरक्षण दो, एससी,एसटी और ओबीसी को प्रोन्नति में आरक्षण की गारंटी करो, राष्ट्रीय स्तर पर मेडिकल कॉलेजों में दाखिले में ओबीसी आरक्षण की लूट पर रोक लगाओ, असंवैधानिक सवर्ण आरक्षण खत्म करो, आरक्षण संवैधानिक हक है, मौलिक अधिकार है, सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण विरोधी फैसलों के खिलाफ अध्यादेश लाओ, आरक्षण को 9वीं अनुसूची में डालो, हमें बहुजन विरोधी ब्राह्मणवादी न्यायपालिका मंजूर नहीं, सुप्रीम कोर्ट एवं हाईकोर्ट में कॉलेजियम सिस्टम खत्म कर राष्ट्रीय न्यायिक सेवा आयोग के जरिए आबादी के अनुपात में आरक्षण के साथ जजों की नियुक्ति करो, आरक्षण व सामाजिक न्याय विरोधी निजीकरण पर रोक लगाओ, मीडिया और निजी क्षेत्र में आबादी के अनुपात में आरक्षण दो, ओबीसी की गिनती क्यों नहीं, जाति जनगणना की गारंटी करो मुद्दों-नारों के पक्ष में फेसबुक, ट्विटर व अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लिखा गया,घरों से प्रतिवाद हुआ, मुद्दों के पोस्टर के साथ तस्वीर सोशल मीडिया पर डालने के साथ ही सोशल मीडिया पर मुद्दों के पक्ष में पोस्टर प्रसारित किया गया. लाइव आकर भी लोगों ने अपनी बात रखी.


रिहाई मंच महासचिव राजीव यादव ने कहा कि बिहार-यूपी की सामाजिक न्याय की पार्टियों ने सामाजिक न्याय का गला घोंटने का काम किया है. ये पार्टियां कुछ खास जातियों के वर्चस्व के राजनीतिक प्रतिनिधि के बतौर आगे बढ़े और व्यापक बहुजन एकता को तोड़ने का काम किया. कांग्रेस ने भी कभी सामाजिक न्याय के साथ न्याय नहीं किया है. उन्होंने कहा कि जाति जनगणना का सवाल महत्वपूर्ण है. 1931 के बाद जाति जनगणना नहीं हो रही है. ओबीसी की गिनती नहीं की जा रही है. ओबीसी की गिनती का सवाल उसके नागरिक होने के सवाल से जुड़ता है. भाजपा-कांग्रेस दोनों ही जाति जनगणना के खिलाफ है.


पत्रकार व लेखक सिद्धार्थ रामु ने कहा कि शाहूजी महाराज की सामाजिक न्याय की अवधारणा व्यापक थी. आज के दौर में सामाजिक न्याय की समग्र अवधारणा में सामाजिक इकाईयों के साथ आर्थिक इकाईयों को भी शामिल करना होगा. सामाजिक न्याय का समग्र एजेंडा तय करते हुए कॉमन एजेंडा के साथ ही अलग-अलग सामाजिक समूहों के विशिष्ट एजेंडा पर भी गौर करना होगा.


वरिष्ठ पत्रकार-बुद्धिजीवी अनिल चमड़िया ने कहा कि सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वालों को निजीकरण और श्रम कानूनों में पूंजीपति पक्षधर बदलाव की मोदी सरकार की मुहिम के खिलाफ भी मजबूती से लड़ना होगा. जो निजीकरण के पक्ष में है, वह आरक्षण व सामाजिक न्याय विरोधी है. सामाजिक न्याय की पार्टियों ने निजीकरण के खिलाफ कभी भी मजबूती से आवाज बुलंद नहीं की है. उन्होंने कहा कि सामाजिक न्याय की लड़ाई को केवल ब्राह्मणवादी हमले के प्रतिकार तक सीमित नहीं रहना होगा. हमें धारावाहिकता में लड़ाई लड़नी होगी,अपने आपको लगातार पुनर्गठित करना होगा. ब्राह्मणवादी शक्तियां अपने आपको लगातार पुनर्गठित करती है.


दिल्ली विश्वविद्यालय के असिस्टेेंट प्रोफेसर लक्ष्मण यादव ने आजादी के 70 साल बाद भी बहुजनों के प्रतिनिधित्व की स्थिति पर चर्चा करते बताया कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति के 82.82 फ़ीसदी, अनसूचित जानजाति के 93.98 फ़ीसदी और पिछड़े वर्ग के 96.65 फीसदी प्रोफेसरों के पद ख़ाली पड़े हैं. एसोसिएट प्रोफेसरों के अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 76.57 फ़ीसदी, अनसूचित जनजाति के 86.01 फ़ीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग के 94.30 फ़ीसदी पद ख़ाली पड़े हैं और इसी तरह असिस्टेंट प्रोफेसर में अनसूचित जातियों के 27.92 फ़ीसदी, अनसूचित जनजातियों के 33.47 फ़ीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग के 41.82 फ़ीसदी पद ख़ाली हैं. लेकिन केन्द्र सरकार लगातार आरक्षण पर हमला कर रही है. क्रीमी लेयर के आय गणना में बदलाव के जरिए ओबीसी आरक्षण को अर्थहीन बना देने की साजिश कर रही है.


जेएनयू के शोध छात्र वीरेन्द्र कुमार ने कहा कि बहुजनों के भीतर भी हमें अलग-अलग हिस्सों के विशिष्ट सवालों पर गौर करना होगा. ओबीसी के भीतर ईबीसी के विशिष्ट सवालों और प्रतिनिधित्व की स्थिति पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि अलग-अलग हिस्सों के विशिष्ट सवालों की उपेक्षा बहुजन एकजुटता और ब्रह्मणवादी सवर्ण वर्चस्व के खिलाफ लड़ाई को कमजोर करता है.


26 जुलाई को ही 'राष्ट्रीय सामाजिक न्याय दिवस' मनाने के पीछे का तर्क स्पष्ट करते हुए संगठनों की ओर से रिंकु यादव और गौतम कुमार प्रीतम ने कहा कि 26 जुलाई 1902 भारत के इतिहास में वह दिन है जब बीसवीं सदी में भारत में सामाजिक न्याय की औपचारिक शुरुआत हुई थी. सामाजिक अन्याय को जारी रखने के लिए चले आ रहे ब्रह्मणवादी पारम्परिक आरक्षण को तोड़ने और सामाजिक न्याय की राह खोलने के लिए आधुनिक आरक्षण व्यवस्था की शुरूआत शाहूजी महाराज ने की थी. सन् 1902 में 26 जुलाई को ही सरकारी आदेश निकालकर अपनी रियासत के 50 प्रतिशत प्रशासनिक पदों को गैर ब्राह्मणों के लिए आरक्षित किया था.


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