हिन्दी दिवस पर विशेष-अपनों से ही उपेक्षित,आखिर क्यों ?


सुरेखा शर्मा  लेखिका / समीक्षक ०

हमारे स्वाभिमान की भाषा  हिन्दी । हमारे स्वाभिमान की भाषा ,फिर भी अपनों से उपेक्षित ,आखिर क्यों ? आज यह प्रश्न विचारणीय है । हमें हिंदी भाषा की स्थिति पर सोच-विचार करना होगा।कितने आश्चर्य की बात है कि पूरे देश में 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है ।विद्यालयों में,सरकारी संस्थानों व कार्यालयों में हिंदी दिवस को एक महोत्सव का रूप दिया जाता है। फिर पूरा वर्ष हिन्दी भाषा को भुलाकर सब कार्य अंग्रेजी भाषा में होते हैं ।इससे बड़ी दुर्भाग्य की बात क्या होगी कि स्कूल में बच्चे यदि हिन्दी में बात करते पाए गए तो उन्हें सजा के तौर पर जुर्माना भरना होता है।तब हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि हम हिन्दुस्तान में रहते या विदेश में ? अपने ही देश में अपनी ही भाषा बोलने पर सजा ? यह भारतीयों की हीन भावना का ही परिणाम है क्योंकि हम भारतीय जब तक अंग्रेजी में बात ना करें तो स्वयं को अनपढ़, गंवार समझते हैं इसमें दोष किसका है ? इसका मनोविश्लेषण करना होगा ।
आज हिन्दी भाषा के प्रति जितनी उदासीनता हिन्दुस्तान में देखने को मिल रही है, उतनी ही तीव्र गति से विदेशों में हिंदी के प्रति लगाव बढ़ रहा है ।अमेरिका के राष्ट्रपति बुश ने हिंदी को 21वीं सदी की भाषा ही नहीं कहा बल्कि 10 करोड़ 4 लाख डॉलर देने की सार्वजनिक घोषणा कर उसे क्रियान्वित भी किया।यहाँ तक कि अंग्रेजी भाषी देशों में विश्व हिन्दी सम्मेलन भी सम्पन्न हुए।फिर हम अपने ही देश हिन्दुस्तान में ही हिंदी बोलने में क्यों हिचकिचाते हैं हम •••?अधिकांश लोगों का सोचना है कि जो अंग्रेजी भाषा में बोलता है,वही पढ़ा लिखा है , वही बड़ा आदमी है।यह बिल्कुल गलत है, जबकि अपनी भाषा ही उसकी पहचान होती है ।

भाषा और संस्कृति का संबंध अत्यंत गहरा है ।भाषा के माध्यम से ही संस्कृति जीवित रहती है ।किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र की आधारशिला राष्ट्रभाषा होती है।जिसके बिना हम राष्ट्र के अस्तित्व की कल्पना भी नही कर सकते । किसी भी देश के चरित्र का आकलन वहां की भाषा के प्रति वहां के लोगों की रूचि से लगाया जा सकता है । 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा बनाने के लिए संविधान ने निर्णय लिया ।26 जनवरी 1950 को संविधान के अनुच्छेद 343 के अन्तर्गत संघ की राजभाषा हिन्दी और देवनागरी को लिपि घोषित किया गया । वैसे किसी भी राष्ट्र की पहचान प्राय: तीन अवयवों से होती है_1,उसका राष्ट्रीय ध्वज हो 2, उसका राष्ट्र गान हो 3,उसकी राष्ट्र भाषा हो।राष्ट्र ध्वज की तो अति सुन्दर परिकल्पना कर ली गई।राष्ट्रीय ध्वज में अशोक के धर्म चक्र प्रवर्तन के प्रतीक को प्रतिष्ठित करने दिया ।जो अहिंसा, शांति और विश्व मैत्री का प्रतीक हैं ।राष्ट्रगान हमें गुरुदेव से मिल गया।लेकिन राष्ट्रभाषा को पूर्णतः उचित स्थान देने में हम पीछे रह गए ।

हजारों सालों की गुलामी ने हमारी चेतना की चमड़ी को इतना मोटा कर दिया कि हम अपनी आंखों के समक्ष अपनी ही संस्कृति की अवमानना देखकर भी विचलित नहीं होते। अपनी राष्ट्रभाषा की हम रक्षा नहीं कर सकते जबकि यह हमारी अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है । इसी सन्दर्भ में बी•बी•सी लंदन के अंग्रेज,हिन्दी पत्रकार मि•मार्क टली ने भारत में आए परिवर्तन का अपना अनुभव अपनी पुस्तक " इन्डिया अनएंडिग जर्नी" में लिखा है कि, 'मैंने जब भी किसी से प्रश्न पूछे तो लोगों ने मुझे हमेशा अंग्रेजी में ही जवाब दिए । मैं उन से बार-बार कहता हूं कि जब मैं आपसे हिन्दी में पूछता हूँ तो आप कृपा करके हिन्दी में ही जवाब दीजिए न! आखिर आपको हिंदी बोलने में शर्म क्यों आती है ? जबकि आज कई विदेशी रचनाकारों ने अपनी लेखनी के माध्यम से हिन्दी में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति दी है, जबकि उनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है ।

हिन्दी विश्व की भाषाओं में सबसे अधिक संख्या में बोले जाने वाली दूसरी भाषा है ।डॉक्टर नौटियाल के निष्कर्षों के अनुसार नेपाल में हिंदी बोलने वालों की संख्या नेपाली बोलने वालों से अधिक है ।लेकिन भारत में लार्ड मैकाले की अंग्रेजी की विदाई नहीं कर पाए । अंग्रेजी भाषा जो हिन्दुस्तान में ही नहीं पूरे विश्व में किसी की भी मातृभाषा नहीं, फिर भी उसे बच्चों को बचपन से ही पढ़ाया जाना क्या अन्याय नहीं है ? यह भाषा हमारी उन्नति में रुकावट पैदा कर रही है ।गत 40-45 वर्षों से जिस तेजी से अंग्रेजी के पीछे भागने की होड़ लगी है वह अपनी भाषा के प्रति हत्या जैसा दुष्कर्म है , अर्थात भारतीय सभ्यता, संस्कृति एवं संस्कारों की हत्या ।संविधान में प्रतिष्ठित राजभाषा के प्रयोग में जो एक अनुल्लंघनीय अंतर है , वह यह है कि हमारा मस्तिष्क विषय को पहले सोचता है, फिर उसे अंग्रेजी में अनुवाद करके बोलता है जो कि गलत है ।यह एक बीमारी है, जिससे हमारी मानसिक क्षमता नष्ट हो जाती है 

।इसलिए हमें बचपन में अपनी मातृभाषा का ही अधिक से अधिक प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि बचपन ही जीवन की नींव होता है । देखा जाए तो हिन्दी भाषा को क्षति सबसे ज्यादा गली-गली में खुलने वाले पब्लिक स्कूलों से हुई है । इन्टरनेशनल व वर्ल्ड स्कूल तो हर नुक्कड़ पर शोभायमान हो चुके हैं ।यदि स्कूलों की फीस शुल्क के विषय में जानेंगे तो आपके अर्थात् आम आदमी के होश उड़ते नज़र आएंगे । 50 से 90 हजार तक का शुल्क नर्सरी कक्षाओं में लिया जाता है ।क्या उसपर कोई नकेल डाल सकता है ? जब नर्सरी में शिक्षा दिलाने के लिए माता-पिता को इतनी धन राशि जमा करनी पड़ेगी तो वह रिश्वत जैसे हथकंडे ही अपनाएगा ।ईमानदारी कीआमदनी में अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में बच्चे नही पढ़ा सकते।आज सफलता का पर्याय ही अंग्रेजी हो गया है ।

इस सबका परिणाम यह निकला कि हर भारतवासी के मन मस्तिष्क में यह धारणा घर कर गई कि अंग्रेजी भाषा के बिना हमारी गति नहीं, व्यक्तित्व का विकास नहीं । अंग्रेजी स्पीकिंग कोर्स खोलकर सबको बेवकूफ बनाया जा रहा है ।कहीं कोई विरोध नहीं ।कुछ हिन्दी सेवी अपनी भूमिका निभा भी रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज कहीं न कहीं दबा दी जाती है ।सिवाय अंग्रेजी को कोसने के उनके पास कुछ नहीं, इसलिए हिन्दी के पर प्रचार-प्रसार करने की बजाय वे अंग्रेजी की लकीर पिटने का ही कार्य करने लगे । शिक्षा संस्थानों के व्यवसायीकरण ने हिंदी भाषा के प्रति खिलवाड़ कर दिया है ।तीन वर्ष की अवस्था से लेकर बीस- इक्कीस वर्ष की आयु तक अंग्रेजी की घुट्टी जिस पीढ़ी ने पी हो तो उससे कैसे आशा की जा सकती है कि वह भारतीय सभ्यता व संस्कारों से परिपूर्ण होगा और अपनी मातृभाषा को महत्व देगा ?

आज प्रत्येक व्यक्ति अंग्रेजी के मोहपाश में फंसा हुआ है ।हिन्दी भाषा को योजनाबद्ध तरीके से शिक्षा से बाहर किया जा रहा है ।जहाँ बारहवीं कक्षा तक हिन्दी विषय पढ़ा जाता था वहीं अब दसवीं कक्षा से भी हिन्दी विषय को वैकल्पिक रूप में रख दिया गया है ।भाषाओं में चयन कर दिया गया है ।जबकि अंग्रेजी भाषा अनिवार्य विषय है। समय रहते हमें इनके षड्यंत्रों का पर्दाफाश करके अपनी और अपनी भाषा की पहचान बनानी होगी । अपनी भाषा के बिना व्यक्ति, समाज और राष्ट्र गूंगा है ।बिना भाषा के किसी का भी विकास असम्भव है । नव जागरण के प्रतीक रहे केशव चंद्र सेन हिंदी भाषी न होते हुए भी जानते थे कि हिंदी के जरिए ही देश में आजादी के आन्दोलन की नींव रखी जा सकती है ।उनका कहना था कि हिंदी को अगर भारतवर्ष की एक मात्र भाषा स्वीकार कर लिया जाए तो राष्ट्रीय एकता स्थापित हो सकती है।देश को जोड़ने में हिंदी ही सक्षम है ।हिंदी संपर्क की भाषा है।

एक ओर हम कहते हैं कि आने वाले बच्चे भावी भारत के कर्णधार होंगे ? आप कल्पना कर सकते हैं कि आने वाला हिन्दुस्तान फिर से अंग्रेजों का गुलाम होगा । जब बच्चों को अंग्रेजी सिखाई जाएगी तो हम उनसे क्या आशा कर सकते हैं ।यह प्रश्न विचारणीय है ।क्या आज गर्व से कह सकते हैं -"हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दुस्तान हमारा"। जब हिन्दी ही नहीं सीखी तो कैसा हिन्दुस्तानी? हिंदी मात्र एक भाषा ही नहीं अपितु हमारी आत्मा है। व संस्कृत भाषा समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की संरक्षिका भी है , हमारी संस्कृति की वाहक भी है ।हिन्दी समाप्त होने का अर्थ है भावी पीढ़ी का अपनी जड़ों से कट जाना।हिन्दी की उपेक्षा मां की उपेक्षा के समान है । अपनी मातृभूमि से मुहं मोड़ना है ।अब भी समय है प्रौढ पीढ़ी अपनी युवा पीढ़ी को अंग्रेजी के मोह जाल से बचाए। भाषाएं सीखना कोई अपराध नहीं बल्कि जहाँ से भी नई भाषा सीखने को मिले तो सीख लेनी चाहिएं,लेकिन उन भाषाओं का गुलाम न बने।

अपना परिचय अपनी मातृभाषा में देना न भूलें ,अपनी मातृभाषा हिंदी की अवहेलना न करे। आज हम गर्व से कह से कह सकते हैं कि हिंदी भाषा का प्रचलन बढ़ा है ।बोलने वालों की संख्या भी बढ़ी है।हमें इस बात की भी खुशी है कि विश्व के हर कोने में हिंदी के शब्द और संस्कृत के श्लोक उच्चरित हो रहे हैं।अनेक देशों के विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति की शिक्षा -दीक्षा दी जा रही है,पर बड़े खेद का विषय है कि अपने ही घर में उसका निरादर हो रहा है।हिंदी अध्यापक को, हिंदी बोलने वाले को हेय दृष्टि से देखा जाता है । जबकि हिंदी अध्यापक कोई साधारण अध्यापक नहीं होता,वह एक राष्ट्रीय अध्यापक होता है। उसके कर्तव्य एवं दायित्व अन्य शिक्षकों से कहीं अधिक होते हैं।  सबसे पहले हिंदी भाषियों को अपना आत्मविश्वास बढ़ाना होगा,अन्यथा स्थिति गंभीर होगी।राजनीति के मकड़जाल में फंसी हिंदी को मुक्त करना होगा । जैसे आजादी का बिगुल बजाया था वैसे ही अपनी मातृभाषा हिंदी को बचाने के लिए ठोस कदम बढ़ाने होंगे ।अतः हमारा कर्तव्य है कि हिंदी के सम्मान की रक्षा करें ।

"हिन्दी है अपनी बोली , इसका सब सम्मान करो,
स्वाधीन देश में हिंदी का अपमान न हो यह ध्यान करो"
जब भी हिंदी की बात होती है तो 
'कविवर नेपाली' की पंक्तियां याद आ जाती हैं---
---दो वर्तमान को सत्य, सरल, सुन्दर भविष्य के सपने दो ,
हिंदी है भारत की बोली, तो अपने आप पनपने दो ।
बढ़ने दो इसे सदा आगे, हिन्दी जन-मन की गंगा है ।
यह माध्यम उस स्वाधीन देश का, जिसकी ध्वजा तिरंगा है।
हो कान पवित्र इसी सुर में,इसमें हर हृदय तड़पने दो ।
हिन्दी है भारत की बोली, तो अपने आप पनपने दो

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आज हिंदी दिवस के अवसर पर वैश्विक बंधुत्व की भाषा हिंदी पर इस सारगर्भित लेख को पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। लेखिका के चिंतन और लेखन में गम्भीरता के साथ-साथ अपनी मां भाषा के प्रति लगाव भी स्पष्ट झलकता है। सुरेखा जी यूँ ही मां भारती की सेवा में अपने उम्दा एवं श्रेष्ठ सृजन से श्रीवृद्धि करती रहे, इसी आदर भाव के साथ सादर वंदन। -डॉ अशोक कुमार 'मंगलेश'
मंगलेश जी हार्दिक आभार, ऊर्जावान प्रतिक्रिया के लिए

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