मेरी नज़र से देखिये न....मुस्कुराईये, कि आप लखनऊ में हैं

नाज़िश अंसारी ० 
लखनऊ -गोमती की मद्धम लहरों के साथ खिरामा खिरामा चलता। दिल्ली मुंबई से अलहदा। कहीं पहुंचने की जल्दबाजी नहीं। इतमीनान। सुकून पसंद। अपनी रो में टहलता। भोकाल टाइट करता। जलवा अफ़रोज़ शहर लखनऊ।यह तोहफा है दरसल जिसे भगवान राम ने लक्ष्मण को दिया था। तब नाम था लक्ष्मण पुरी। लक्ष्मण पुरी को लखनऊ बनने में बरसों बरस लगे।1775 में नवाब आसिफ उद दौला ने अवध की राजधानी को फैजाबाद से उठाकर लखनऊ में तब्दील किया। राजधानी बनते और आसिफुद्दौला के पैर रखते ही पत्थर मूरत अहिल्या सा जी उठा कस्बे बराबर लखनऊ।
कायनात शाहिदा कहती हैं,
सारे लखनऊ की जाँ
अमीनाबाद सरवत है
भले उजलत बहुत है याँ
मगर उजलत में फ़ुरसत है
यहाँ का हर गली-गोशा
तमन्नाओं की जन्नत है
अमीनाबाद है रौनक़
अमीनाबाद बरकत है!

मस्जिदों की तामीर हुई। इमामबाड़े, मक़बरे, मस्जिद, मंदिर, ठाकुर द्वारे बने। लखनऊ के इंडिया गेट यानी रूमी गेट का नाम 13वीं शताब्दी में जलालुद्दीन मुहम्मद रूमी नाम के एक बुजुर्ग पर रखा गया।60 फीट ऊंचा 3 दर का यह गेट बनने में 2 साल लगे। तुर्क़ी architecture की निस्बत लिये लखनऊ का यह सिग्नेचर पीस बाज़ दफ़ा युवाओं का सेल्फी प्वाइंट भी है। शाहरुख खान की तरह बांहे फैलाए यह दरवाज़ा आपका खैरमक़दम करते हुए एक टाइट हग देता और कहता है- मुस्कुराइए! आप लखनऊ में हैं। 1784 में सूखा पड़ा, नवाब आसिफुद्दौला ने रूमी गेट के साथ ही बड़े इमामबाड़े की तामीर भी करवाई। दिन भर काम चलता। रात ढहा दिया जाता। कि लोगों को रोज़गार मिलता रहे। चूल्हा जलता रहे। उस वक्त लोग कहते थे
जिसको न देंगे मौला उसको देंगे आसिफुद्दौला"किफायतुल्ला" (जिनका समबन्ध ताजमहल से भी है) की परिकल्पना पर बना यह वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। इसका सेंट्रल रूम लगभग 50 मीटर लंबा, 16मीटर चौड़ा और 15मीटर से ज्यादा ऊंचा है। अनोखी बात यह है कि लोहे/ पत्थर/ या किसी भी किस्म की बीम से आजाद गुंबद नुमा हाॅल हैरतअंगेज बनावट की विश्व की सबसे बड़ी रचना है। इमामबाड़ा सिर्फ आसिफी मस्जिद नहीं है ना मक़बरा। यह दरअसल वह कान है जो मोहर्रम में रो-रो कर पढ़े जाने वाले नौहे सुनता है। इसकी दीवारें उन सिसकियों की गवाह हैं, जो ज़ार-ज़ार बहाए आंसुओं को रोकने की कोशिश में तख्लीक़ पाती हैं।

इमामबाड़े के सैकड़ों दर ओ दरीचे जहां से पूरा शहर पालने में पड़े मुस्कुराते बच्चे की तरह लगता है, गवाह हैं मुहर्रम चहल्लम के मातम का। चक्कू छुरियों वाले मातम का। आसमान "या-हुसैन"से थर्राती सदाओं का और जमीन धप्प धप्प चुप ताजिए की। अब यह ना समझ लीजियेगा कि शहर सिर्फ गम में शिरकत करता है। यह गमी के काले रंग से निकलकर हंसी के अबीर संग हुमकता है। खुशी के गुलाल संग झमकता भी है।
कहते हैं, वाजिद अली शाह के जमाने में एक दफा होली उस दिन पड़ गई जिस दिन मोहर्रम का जुलूस निकलना था। अब आम ओ खास हर तरफ फिक्र थी कि एक तरफ होली है दूसरी तरफ मुहर्रम। एक तरफ़ रंग और उल्लास है दूसरी तरफ आँसू।

वाजिद अली शाह ने एक तरक़ीब निकाली और ऐलान किया कि सुबह से दोपहर तक रंग चलेगा। दोपहर बाद अज़ादारी होगी।हिंदू मुस्लिम एकता के अलमबरदार रक़ाबगंज, मौलवीगंज के लाला श्रीवास्तव को आज भी आधा मुसलमान कहा जाता है। रेजीडेंसी-- गुरबत वाला इश्क जैसे रेस्टोरेंट नसीब नहीं होते,रेज़ीडेंसी उनकी प्राइवेसी में चारदीवारी बनकर दरबानी करता है। मोहब्बत के दरिया में गोते खाते जोड़ों के लिए जब पूरा शहर अपनी आंखों को सीसीटीवी से रिप्लेस कर लेता है तब उनके सुकून के ठौर की तलाश रेजिडेंसी खत्म करता है। ईस्ट इंडिया कंपनी का ऑफ़िस और अन्ग्रेज़ों की रिहाईश रेजीडेंसी के कैंपस में महत्वपूर्ण रूप से पांच-छ: भवन थे। जिनमें मुख्य भवन, बैंक्वेट हॉल, डॉक्टर फेयरर का घर, बेगम कोठी के पास एक मस्जिद और ट्रेजरी शामिल हैं।

इसी रेजीडेंसी को 1857 की गदर में लगातार तीन दिन तोपों से छेदते हुए लखनऊ अन्ग्रेज़ों को हरा देता है।
जो आज खंडहर है वहां कभी नवाबों की शाही दावत हुआ करती थीं। उनकी बेगमात रहा करती थीं।
रेजीडेंसी अपने कैंपस में कब्रिस्तान रखता है। चर्च भी। बूचड़ खाना भी। इमामबाड़ा और मस्जिद भी।
अब सिर्फ अवशेष हैं। मिट के भी नहीं मिटा वह है, दीवारों और खंभों पर तोप के गोलों के निशान। जो चेचक की तरह बदसूरत हैं। फिर भी रेजीडेंसी खूबसूरत है।

यह सारी इमारतें और लखनऊ की तारीख चौक के दामन में सिमटी, नक़्खास की गलियों में बिखरी हैं। चौक का गोल दरवाजा अपनी सुरंग वाली गली: जिसमें चिकन की तमाम विविध नयी और पुरानी शैली के कपड़े, सोने चान्दी के जेवर से लेकर जूते, लेस-गोटे, और इत्र की भरमार रखता है। साथ ही मिठाई, लस्सी, केसरिया दूध, दही-जलेबी, खस्ता, कचौड़ी पूरी जैसे तमाम शाकाहारी खानों के अलावा कवाब, बिरयानी, शीरमाल, पराठे, निहारी कुल्चे से मेज़बानी करता है। नक़्खास लखनऊ का सबसे बड़ा बाज़ार होने के साथ ही कच्चे सामानों खासकर चिकनकारी का जखीरा है। चिकन की छपाई, रंगाई, कढ़ाई, पक्के पुल के नीचे गोमती में धुलाई, क़सब, आरी ज़रदोज़ी, ज़री के काम से लेकर लहंगा, गरारा, सूट, साड़ी, कबूतर, तोता, चिड़िया, देसी-जंगली मुर्गे•••• गरज़ कि लखनऊ को लखनऊवी बनाने की लवाज़मात का सारा ज़िम्मा इसी ने उठा रखा है।

यह शहर जितना सड़क पर है उससे ज़्यादा गलियों में आबाद है। रोटी वाली गली, बताशे वाली गली, जूते वाली गली, कन्घी वाली गली, शीशे वाली गली, गन्ने वाली गली, चूड़ी वाली गली, फूलों वाली गली से लेकर नवाबों के बावर्चियों का बावर्ची टोला, भांडो का भाँडू मुहल्ला, मशाल बनाने वालों का मशालची टोला, आसिफुद्दौला की एक्स्ट्रा बेगमात के लिये बसाया गया क़ैसरबाग, तवायफों का कश्मीरी मुहल्ला, कबूतर बाज़ी- पतँगबाज़ी को देखने के लिये बनाया गया मोती महल जैसे तमाम नाम शहर की गुज़िश्ता आराईश को कहते हैं। नया लखनऊ-- माने गोमती नगर माने एक्सटेंशन ऑफ लखनऊ। मायावती का बसाया, फैलाया, जयपुरी पत्थरों से सजाया सैकड़ों हाथियों वाले अंबेडकर पार्क के इर्द-गिर्द फैला।

यह vip area शहर का चमचमाता अमीर चेहरा है। स्मार्ट, मोडर्न बहोत से "वि-खंडों" का जंक्शन। रेस्तराँ की भरमार यहां खूब है। बस ज़रा चायनीज़, इटैलियन, contilental पर तरजीह ज़्यादा है। इसके प्रोग्रेस्सिव होने का अंदाज़ा इस बात से लगा लीजिये कि जो औरतें, लड़कियाँ acid attack की वजह से अपना चेहरा/शरीर छिपाती फिरती हैं, शीरोज़ हैंगआउट रेस्तराँ ससम्मान नौकरी देने के साथ उनमें जीने की इच्छा और आत्मविश्वास पैदा करता है। अब आते हैं अमीनाबाद पर।नक्खास से नादान सी जाती हुई सड़क जिस पर कोई महल नहीं,मौल्वियों से करती हुई दुआ सलाम, पहुंचती है अमीनाबाद।

लफ्ज़ अमानत से बना अमीनाबाद। मिडिल क्लास की शॉपिंग का मरकज़। मोहन मार्केट की तीन गलियों में बजाजा खोले बैठा अमीनाबाद। आपा आइये ना! बाजी ज़रा देखिये ना! अंदर तो आईये! तशरीफ़ लाईये की गुहार लगाता हर दुकान पर एक शख्स ऐसे जुमलों से आगवानी करता।यहां एक गड़बड़ झाला है। जहां झुमकी है। बुंदे हैं। ढेरों चूड़ियां। रस्ता ज़रा भूलभूलय्या सा लेकिन गड़बड़ कोई नहीं। प्रकाश कुल्फी खाता, पापड़, अचार के के साथ सादे सुहाने से लेकर शादी वाले चकमक सूट बेचता अमीनाबाद। लखनऊ का कनाॅट प्लेस हज़रतगंज। विधान सभा, जीपीओ ऑफ़िस, बापू भवन, शक्ति भवन वाले सरकारी काम-काज का ठिकाना। सरकारी नाम सुनकर आप तिरछी नज़र नहीं फ़ेंक सकते।

universal, साहू सिनेमा, mayfair, बरिस्ता, इंडियन कॉफ़ी हाउस, कैफ़े कॉफ़ी डे, कैथेड्रल चर्च और शहर के तमाम मिशनरी स्कूल आप का हाथ थाम कर कहेंगे, नज़रे करम तो भरपूर कीजिए हुज़ूर!यहां की आधी पीली आधी काली इमारतें जैसे कोई क़दीम किताब हों। छुओ तो आहिस्तगी से कि पीले पड़ चुके तमाम वरक़ कहीं टूट ना जाए।इसी गंज में एक और गंज है, सहारागंज। शहर का पहला शॉपिंग मॉल। सुब्रत राय नहीं चल रहे लेकिन मॉल चल रहा है।छोड़िये सब, खाने की बात करते हैं - लखनऊ का नाम आते ही नवाब के साथ आता है कबाब। मुँह में डालते ही घुल जाने वाला गलावटी कवाब। असल पर्यायवाची जिसका "टुन्डे" है।

बड़ी सी लगन में कोयले की धधकती आग पर आराम फरमा कवाब। जरा झटके से पलटो तो बिखर जाएं। साथ में केसरिया कोटिंग वाली शीरमाल और प्याज के लच्छे।हरी चटनी तो खामखा चटोरों की जबान की आशूदगी को रखी जाती। बस•• नीबूं की दो बून्दें ज़बान की आखरी स्वादइंद्री तक कवाब पहुंचा देती हैं।
कबाब सिर्फ गलावटी नहीं होते। सीख में लिपटे रोल कवाब, बोटी कवाब, काकोरी कवाब, शामी कबाब, माही(मछली) कवाब, सोयाबीन के, लौकी के, कटहल के•• गरज कि लखनऊ हर बेज़ायक़ा को कवाब बना कर उसमें ज़ायक़ा ढूंढ लेता है। लेकिन कंपलीट डिश बिरयानी को ही कहा जाएगा। नारंगी, सफेद, पीले और ज़रा ज़रा से लाल चावलों में मटन या चिकन। कहीं रायते और कहीं तरी के साथ पेश ए खिदमत।

देश की तमाम बिरयानियों से अलहदा करते हैं इसे हल्की खुशबू के मसाले, नमक और मिर्च का combination। पेट पर हल्की लेकिन हाथ के पोरों और नाक के नथुनी में देर तक टिकने वाली बिरयानी।
यूं तो हर गली, नुक्कड़, चौराहे पर खड़े चिकन बिरयानी, अवध बिरयानी, लखनवी बिरयानी के ठेले- खोमचों ने इसे कुकरमुत्ता बना दिया है। फिर भी ज़ायक़ा नक्खास में इदरीस, अमीनाबाद के वाहिद और आलमगीर जैसे होटलों में बचा है।और सुनिए, शहर का पुराना हिस्सा मलाई को "बालाई" भी कहता है। क्योंकि यह दूध से बाला यानी ऊपर होती है। शहर पान लगाना बेअदबी समझता है। यहां पान बनाया जाता है, लगाया नहीं जाता। ज़बान का तो कहना ही क्या! तहज़ीब तमीज़ में लिपटी शीरीं सी ज़बान..बातें जहां बहुवचन में होती हैं। एकवचन बदतमीज सा सिरे से बॉयकॉट। मैं नहीं हम। तुम नहीं आप। अबे नहीं अमां।

बातें लच्छे दार। अंदाज नफीस दर्मियां सा कुछ। बेहद खुशी का इज़हार लिपटकर, चूम कर नहीं बस•• मुस्कुरा कर करना। गुस्से में नाक-भौं सिकोड़ने, लाल पीने होने के बजाय नज़रअंदाज़ कर देना। मुखातिब ना होना। कोई रे-तू नहीं। गाली-गलौज नहीं। नमक- हराम को भी एहतियात बरतकर नमक- फ़रामोश कह देना।ये सब बचा कुचा पुराने लखनऊ में मिलेगा। बाक़ी पूरे शहर की ज़बान ना उर्दू रह गयी है, ना हिन्दी, ना इंग्लिश। खिचड़ी बन चुकी है। गुज़िश्ता लखनऊ के दौर में दूर-दूर से लोग मिसरे में गांठ बनवाने आते थे। यानी शे'र की एक लाइन के जोड़ की दूसरी लाईन ढूँढने के लिए लखनऊ का रुख करते। एक वक़्त में साहित्य यहां इतना समृद्ध था कि रिक्शे और सब्जी वाले तक दिल्ली से मिसरा लाए लोगों को शेर मुकम्मल कर देते थे।

कहने को तो लखनऊ में बहुत कुछ बदल चुका है। वह तहज़ीब ओ तमीज नहीं बची। वह जबान वह तलफ्फ़ुज़ नहीं बचा। मगर ज़माना अब तक लखनऊ की ही मिस्ल ना ढूंढ सका है। यह शायरों का शहर है। अदीबो का शहर है। बिरजू महाराज के कत्थक का शहर है। पूरब घराना के तबले का शहर है। संगीत के टप्पों का शहर है। क़ायम भांड का शहर है। कब्बन मिर्जा का शहर है। अहमद जान थिरकवा का शहर है। नौशाद का शहर है। उमराव जान का शहर है। यह अदा का शहर है। आदाब का शहर है। नफासत का शहर है। नज़ाकत का शहर है। तारीफ का शहर है। तारीख का शहर है। लिबास का शहर है। आम ओ खास का शहर है।
सबसे बढ़कर यह मेरी मां का शहर है•• पूरब की दिशा में जिसे छोड़ते हुए वह गोमती से घाघरा तक रोई। सरयू में सिसकी बंधी। इस कमाल से शहर का जमाल है कि अलविदा कहते वक्त आपको तीन नदियों जितना रुला सकता है। यह मोहब्बत बेहिसाब का शहर है।

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