"इगास* उत्तराखण्ड की लुप्त होती दीपावली

० योगेश भट्ट ० 
शायद ही किसी गैर उत्तराखण्डी ने इगास के बारे में सुना होगा, दरअसल आजकल के पहाडी बच्चों को भी इगास का पता नहीं है कि इगास नाम का कोई त्यौहार भी है, । दरअसल पहाडीयों की असली दीपावली इगास ही है, जो दीपोत्सव के ठीक ग्यारह दिन बाद मनाई जाती है, दीपोत्सव को इतनी देर में मनाने के दो कारण हैं पहला और मुख्य कारण ये कि - भगवान श्रीराम के अयोध्या वापस आने की खबर सूदूर पहाडी निवासीयों को ग्यारह दिन बाद मिली, और उन्होंने उस दिन को ही दीपोत्सव के रूप में हर्षोल्लास से मनाने का निश्चय किया, बाद में छोटी दीपावली से लेकर गोवर्धन पूजा तक सबको मनाया लेकिन ग्यारह दिन बाद की उस दीवाली को नहीं छोडा, ।

पहाडों में दीपावली को लोग दीये जलाते हैं, गौ पूजन करते हैं, अपने ईष्ट और कुलदेवी कुलदेवता की पूजा करते हैं, नयी उडद की दाल के पकौड़े बनाते हैं और गहत की दाल के स्वांले ( दाल से भरी पुडी़) , दीपावली और इगास की शाम को सूर्यास्त होते ही औजी हर घर के द्वार पर ढोल दमाऊ के साथ बडई ( एक तरह की ढोल विधा) बजाते हैं फिर लोग पूजा शुरू करते हैं, पूजा समाप्ति के बाद सब लोग ढोल दमाऊ के साथ कुलदेवी या देवता के मंदिर जाते हैं वहां पर मंडाण ( पहाडी नृत्य) नाचते हैं, चीड़ की राल और बेल से बने भैला ( एक तरह की मशाल ) खेलते हैं, रात के बारह बजते ही सब घरों इकट्ठा किया सतनाजा ( सात अनाज) गांव की चारो दिशा की सीमाओं पर रखते हैं इस सीमा को दिशाबंधनी कहा जाता है इससे बाहर लोग अपना घर नही बनाते। ये सतनाजा मां काली को भेंट होता है।

इगास मनाने का दूसरा कारण है गढवाल नरेश महिपति शाह के सेनापति वीर माधोसिंह गढवाल तिब्बत युद्ध में गढवाल की सेना का नेतृत्व कर रहे थे, गढवाल सेना युद्ध जीत चुकी थी लेकिन माधोसिंह सेना की एक छोटी टुकडी के साथ मुख्य सेना से अलग होकर भटक गये सबने उन्हें वीरगति को प्राप्त मान लिया लेकिन वो जब वापस आये तो सबने उनका स्वागत बडे जोरशोर से किया ये दिन दीपोत्सव के ग्यारह दिन बाद का दिन इसलिए इस दिन को भी दीपोत्सव जैसा मनाया गया, उस युद्ध में माधोसिंह गढवाल - तिब्बत की सीमा तय कर चुके थे जो वर्तमान में भारत- तिब्बत सीमा है .

भारत के बहुत से उत्सव लुप्त हो चुके हैं, बहुत से उत्सव तेजी से पूरे भारत में फैल रहे हैं, जैसे महाराष्ट्र का गणेशोत्सव, बंगाल की दुर्गा पूजा, पूर्वांचल की छठ पूजा, पंजाब का करवाचौथ गुजरात का नवरात्रि में मनाया जाना वाल गरबा डांडिया, । लेकिन पहाडी इगास लुप्त होने वाले त्यौहारों की श्रेणी में है, इसका मुख्य कारण बढता बाजारवाद, क्क्षेत्रीय लोगों की उदासीनता और पलायन है, । दिवाली ...माधो सिंह भंडारी की वीरता से है इसका संबंध ...माधो सिंह भंडारी 17 वीं शताब्दी में उत्तराखंड के प्रसिद्ध भड़ (योद्धा) हुए। माधो सिंह मलेथा गांव के थे। तब श्रीनगर उत्तराखंड के राजाओं की राजधानी थी।
माधो सिंह भड़ परंपरा से थे। उनके पिता कालो भंडारी की बहुत ख्याति हुई। माधो सिंह, पहले राजा महीपत शाह, फ़िर रानी कर्णावती और फिर पृथ्वीपति शाह के वजीर और वर्षों तक सेनानायक भी रहे।

एक उत्तराखंडी लोकगाथा गीत (पंवाड़ा) देखिए -"सै़णा सिरीनगर रैंदू राजा महीपत शाहीमहीपत शाह राजान भंडारी सिरीनगर बुलायो ...."तब उत्तराखंड और तिब्बत के बीच अक्सर युद्ध हुआ करते थे। दापा के सरदार गर्मियों में दर्रों से उतरकर उत्तराखंड के ऊपरी भाग में लूटपाट करते थे। माधो सिंह भंडारी ने तिब्बत के सरदारों से दो या तीन युद्ध लड़े। सीमाओं का निर्धारण किया। सीमा पर भंडारी के बनवाए कुछ मुनारे (स्तंभ) आज भी चीन सीमा पर मौजूद हैं। माधो सिंह ने पश्चिमी सीमा पर हिमाचल प्रदेश की ओर भी एक बार युद्ध लड़ा।

एक बार तिब्बत युद्ध में वे इतने उलझ गए कि दिवाली के समय तक वापस श्रीनगर उत्तराखंड नहीं पहुंच पाए। आशंका थी कि कहीं युद्ध में मारे न गए हों। तब दिवाली नहीं मनाई गई।दिवाली के कुछ दिन बाद माधो सिंह की युद्ध विजय और सुरक्षित होने की खबर श्रीनगर उत्तराखंड पहुंची। तब राजा की सहमति पर एकादशी के दिन दिवाली मनाने की घोषणा हुई।तब से इगास बग्वाल निरंतर मनाई जाती है। उत्तराखंड में यह लोक पर्व बन गया। हालांकि कुछ गांवों में फिर से आमावस्या की दिवाली ही रह गई और कुछ में दोनों ही मनाई जाती रही। इगास बिल्कुल दीवाली की तरह ही मनाई जाती है। उड़द के पकोड़े, दियों की रोशनी, भैला और मंडाण ........शायद यह 1630 के आसपास की बात है। इन्हीं माधो सिंह भंडारी ने 1634 के आसपास मलेथा की प्रसिद्ध भूमिगत सिंचाई नहर बनाई, जिसमें उनके पुत्र का बलिदान हुआ।

जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने तिब्बत से ही एक और युद्ध लड़ा, जिसमें उन्हें वीरगति प्राप्त हुई। इतिहास के अलावा भी अनेक लोकगाथा गीतों में माधो सिंह की शौर्य गाथा गाई जाती है। इगास दिवाली पर उन्हें याद किया जाता है -

""दाळ दळीं रैगे माधो सिंह

चौंऴ छड्यां रैगे माधो सिंह

बार ऐन बग्वाळी माधो सिंह

सोला ऐन शराद मधो सिंह

मेरो माधो निं आई माधो सिंह

तेरी राणी बोराणी माधो सिंह .........."

वीरगाथा गीतों में उनके पिता कालो भंडारी, पत्नियां रुक्मा और उदीना तथा पुत्र गजे सिंह और अमर सिंह का भी उल्लेख आता है। मलेथा में नहर निर्माण, संभवत पहाड़ की पहली भूमिगत सिंचाई नहर पर भी लोक गाथा गीत हैं।

रुक्मा का उलाहना -

" योछ भंडारी क्या तेरू मलेथा

जख सैणा पुंगड़ा बिनपाणी रगड़ा ........"

और जब नहर बन जाती है तब -

भंडारी रुक्मा से कहता है -

" ऐ जाणू रुक्मा मेरा मलेथा

गौं मुंड को सेरो मेरा मलेथा .........."

बहुत विस्तृत है माधो सिंह भंडारी की इतिहास शौर्य गाथा और लोकगाथा भी। उनकी मृत्यु शायद 1664 - 65 के बाद हुई। द्रमणि बडोनी जी के निर्देशन में माधो सिंह भंडारी से सम्बन्धित गाथा गीतों को 1970 के दशक में संकलित करके नृत्य नाटिका में ढाला गया था। एक डेढ़ दशक तक दर्जनों मंचन हुए। स्वर और ताल देने वाले लोक साधक 85 वर्षीय शिवजनी अब भी टिहरी के ढुंग बजियाल गांव में रहते हैं .......लोग इगास तो मनाते रहे लेकिन इसका इतिहास और इसकी गाथा भूलते चले गए। आधा उत्तराखंड भूल गया, जबकि आधा उत्तराखंड में अब भी बड़े उत्साह से इगास मनाई जाती है।

खास बात यह भी समझें कि मध्य काल में उत्तर की सीमाएं माधो सिंह, रिखोला लोदी, भीम सिंह बर्त्वाल जैसे उत्तराखंड के योद्धाओं के कारण सुरक्षित रही हैं।चीन से भारत का युद्ध आजादी के बाद हुआ लेकिन तिब्बत से तो उत्तराखंड के योद्धा शताब्दियों तक लड़ते रहे। पर्वत की घाटियों में ही तिब्बत के सरदारों को रोकते रहे। सिर्फ गढ़वाल ही नहीं भारत भूमि की रक्षा भी की ।राहुल सांकृत्यायन के अनुसार एक बार तो टिहरी के निकट भल्डियाणा तक चले आए थे तिब्बत के सरदार ।तो फिर ...... उत्तराखंड ही क्यों, पूरे भारत देश को इन योद्धाओं का ऋणी होना चाहिए । गाथा सुननी चाहिए,पढ़नी चाहिए ...।

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