अलमारी के अंदर से कुछअनसुनी आवाजें

० विनोद तकिया वाला ० 
जीवन जीविका के जंग मे जुझते जुझते आधुनिक ईसान इतना अस्त व्यस्त हो गया है कि वे अपने मानव जीवन जीने का तरीका व सलिका भुल गया है।खास कर आज के नगरीय व पश्चिमी सभ्यता के पक्षधर लोग।मै भी अपने आप को इससे अछुता नही हुँ।दिल्ली के शहरी सभ्यता व एकाकी जीवन जीने के अभ्यथ दैनिक दिनचर्या में मैअपने आप का ही गुनागार मानता हुँ। खैर मै अपने आप से इस संदर्भ मे कभी अन्य लेख मे चर्चा करूँगा । आज मेरी सप्ताहिक अवकाश होती है। श्याद आप की होगी।इसलिए छट्टी के दिनो प्लानलिग करते है मै भी इस छुट्टी का सदुपयोग करने की सोच रहा था कि आज रविवार है। वातावरण में आज प्रातः से भगवान भुवन भास्कर बादल के ओट में ऑख मिचौनी का खेल खेल रहा है वही सर्द हवाएं भी अपनी उपस्थिति करा दी है। हो भी क्यो नही जो ठहरा मौसम सर्दी का है।इसलिए गर्म कपड़े के लिए मै आज सुबह सवेरे कपड़े की अलमारी खोली।
चूँकि मै एक पत्रकार'लेखक के संग एक भावानात्मक कवि भी हुँ।जिसके कारण आज अपने एक कमरे मे रखे आलमारी से मेरे कानो मे कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी कि ,टोपी बहन ,,,आज शायद तेरा या मेरा नंबर लग जाए बाहर के वातावरण मे सर्दी बढ़ गई है शायद आज हमारी जरूरत पड़ जाए..ये गर्म जुराबो की आवाज थी।उस के सुर में सुर मिलाते पिछले सालों के रखे सभी गर्म कपड़े अपनी अपनी बात कहने को उतावले होने लगे..मान्यवर आप ने कितने शौक से हमे खरीदा था अपने रंग व अपनी पसंद के डिजायन-चुन कर सभी स्वेटर ,जर्सीया,शॉल कोट,पेन्ट,सभी मानो विरोध के स्वर थे।सभी एक स्वर मे बोल पडे श्री मान हम आपके लिए पसंद ओर फैशन हो सकते हैं परंतु पहनोगे तब न!

 अलमारी में रखे रखे हमारा अब दम घुट रहा है।ना जाने कितने लोग दिल्ली/एन सी आर व देश के महानगरो मे हाड कपाने वाले इस सर्दी से ठिठुर रहे हैं,जिसने अपनी आशियाना सडको के किनारे - चौक चौराहे पर खुले नीलेआसमान के नीचे अपनी सर्दे भरी राते गुजरा रहे है।जिन्हें अभी हमारी शक्तजरूरत है।हर साल नए नए कपड़े लाकर हमारे ऊपर रख देते हैं,आप हमारी जरूरत हमारा उपयोग… सब कुछ व्यर्थ है। मै तैयार होकर मुझे निकलने की जल्दी थी।क्योकि आलमारी मे तीन कोट पेन्ट के कपड़े पिछले बर्षो से पडे थे । जिन्हे मुझे सिलाई करवाने के लिए टेलर को देना था।ऐसे मे

स्वेटर,जैकेट,दस्ताने,मफलर,जुराब सबकी मन की बात समझ आ रही थी.... क्योकि मै एक पत्रकार होने के साथ लेखक्र,समीक्षक स्तम्भकार के साथ एक आम जिन्मेदार नागरिक हुँ। बस एक-दो दिन की मोहलत मांग वहां से निकलने की कवायद की।सच मानिए.... कभी सोचिए उन नीचे दबे ठंडे गर्म कपड़ों के बारे में जिन्होंने केवल हमारी अलमारी का वजन बढ़ा रखा है।मौका बे मौके भी उनकी तरफ देखते नहीं।अगले रविवार को यही काम करना है...जो नहीं पहनने उसे निकालकर जरूरतमंदों तक पहुंचाएंगे.. कपड़ों की घुटन भी कम होगी.... और ठंड से व्याकुल लोगों की ठिठुरन भी।लेकिन

इससे पहले आपकी अलमारी से बगावत के स्वर उठने लगे कपड़ो के साथ कल पुराने बिस्तर भी आ मिलेंगे,आप भी इस काम को निपटा लें ......सबका भला।अलमारी भी हल्की,,मन भी हल्का,,, और हाँ सेलीफिन में अच्छे से सिंगल पैकिंग करके दीजिएगा। आप भीअपने लिए खरीदे गये कपडे जिन्हे आप ने प्रेम पुर्वक खरीददारी की है।उनकी भावना का कद्र करे।अपने आस पास जरूरत मंदो मे अलमारियो पड़े गर्म कपड़े बाँटे,अपने कपड़े की हसरते को पुरी करे।जरूरत मंद के चेहरे की खुसिया विखरे ,स्वयं मुस्कारते रहे।श्याद इसी का नाम जिन्दगी है।

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