पुरुष समाज को बेनक़ाब करती फ़िल्म "पिंजरे की तितलियां"

० तबस्सुम जहाँ ० 
"पिंजरे की तितलियाँ" फ़िल्म में दिखाया परिवेश हमारे मुख्यधारा समाज के लिए टैबू हो सकता है पर यह भी सत्य है कि भारत से सटे पाकिस्तान तथा बांग्लादेश बॉर्डर पर ऐसे अनेक गाँव हैं जहाँ पर कुछ परिवारों मे पीढ़ीगत वेश्यावृत्ति का काम होता है। इन परिवारों में बेटी जन्म को खुशी का कारण माना जाता है क्योंकि वह इनके पेशे को आगे बढ़ाती हैं। परिवार के सभी पुरूष बहन-बेटियों से वेश्यावृत्ति कराते हैं उनके लिए यही परिवार की जीविकोपार्जन का साधन हैं। ऐसे ही एक परिवार की विद्रूपता की सच्ची कहानी है डायरेक्टर आशीष नेहरा की फ़िल्म "पिंजरे की तितलियां"
तितलियों का काम है उड़ना फूलों और बागों में। यहाँ "उड़ना" स्त्री के संदर्भ में कल्पना या ऊंची उड़ान से है पर तितलियों को कैद कर दिया गया है। पिंजरे की तितलियां यानी वेश्यावृत्ति यानी धंधा करने वाली स्त्रियां भी स्वतंत्र नहीं है बल्कि पुरुषवादी वर्चस्व की शिकार है। वे इतनी आहत है कि कभी वह आत्महत्या करने को मजबूर होती हैं तो कभी अपने सगे पिता के सामने समर्पण करने को विवश होती है। ख़ुद अपने ही घर में उन्हें जिस्मफरोशी करने को मजबूर किया जाता है। फ़िल्म में 3 स्त्री चरित्र पात्र हैं। सबसे बड़ी रूही है जो आरंभ में तो अपने पिता का विरोध करती है पर सफल न होने पर अंतः वे हथियार डाल देती है और परिस्थितियों से समझौता कर लेती है। दूसरा पात्र अफ़साना जिस्म फरोशी की कैद से निकलने के लिए आत्महत्या करने का प्रयास करती है और मर जाती है। 
तीसरा और महत्वपूर्ण पात्र रुख़सार का है जो अभी कम उम्र की लड़की है। वह इस कैद से निकलना चाहती है। बाहर खुलकर सांस लेना चाहती है पढ़ना चाहती है और अपने तरीक़े से हर संभव प्रयास करती है। विडंबना है कि वह न तो रूही की तरह समर्पण करना चाहती है और न ही अफ़साना की तरह आत्महत्या। इस बीच वह निज़ाम साहब के पौरुष को चुनौती देती है और निज़ाम साहब को ठेंगा दिखाते हुए अपने नौकर के सामने समर्पण करती है। फ़िल्म के अंत मे दिखाया है कि रुख़सार कैंडिल से अपना कौमार्य ख़ुद भंग करती है और निज़ाम साहब जो रोज़ उसके कौमार्य की बोली लगाते हैं उनके अहम को तार तार कर देती है।
"पिंजरे की तितलियां" फिल्म में निज़ाम साहब का जो कैरेक्टर दिखाया गया है दरअसल निज़ाम साहब एक समाज के प्रतीक है यहाँ केवल वह निज़ाम नहीं है बल्कि सामान्य मर्द है जो औरत को हर तरीके से भोग लेना चाहता है कभी उसके जिस्म कभी उसके दिल को और कभी उसकी भावनाओं को। दूसरा चरित्र यहाँ पिता का है जो हर परिस्थिति में चाहता है कि उसके घर की व्यवस्था चलती रहे। उसके धंधे में कोई रुकावट या कोई अड़चन ना आए अब यह पिता पर निर्भर करता है कि उसका घर कैसे चले। फिल्म में पिता वेश्यावृत्ति द्वारा अपना घर चला रहा है। उसने धंधे को ही अपना पेशा बनाया हुआ है। धंधे में जब एक लड़की आत्महत्या करने के प्रयास के दौरान घायल हो जाती है 
तब इस परिस्थिति में भी उसे घर की चिंता अधिक है। फ़िल्म में पिता खब्बी को बार बार यही चिंता सताती है कि "उसका धंधा मंदा हो रहा है अब घर कैसे चलेगा।" अपाहिज लड़की उसे बोझ लगती है वह कहता भी है कि "लंगड़ी घोड़ी पर कोई क्यों चढ़ेगा।" उसे लड़की से ज़्यादा उसके ग्राहक की चिंता अधिक है। यहाँ यह भी माना जा सकता है कि जब तक स्त्री का रूप है यौवन है तब तक ही वह उसके लिए उपयोगी है ऐसा न होने पर वह पुरुष के लिए बोझ बन जाती है।

तीसरा चरित्र नौकर नवाब है जो कि उस घर की लड़कियों से सहानुभूति रखता है और रुखसार भी यह बात जानती है। नवाब उसकी देखभाल करता है पिता के द्वारा रुखसार को भूखा रखे जाने पर नवाब है उसे चोरी से रोटी खिलाता है। उसे पिता का अपनी बेटियों के लिए इस तरह का व्यवहार बिल्कुल भी पसंद नहीं है। जब रुखसार उससे शारीरिक समर्पण करना चाहती है वह बार बार मना करता है। बाद में खब्बी से मार खा कर उसे यह नहीं बताता कि उसने कुछ नहीं किया है। इस तरह वह रुखसार को निज़ाम साहब और खब्बी दोनों से बचाता है।

रुख़सार पात्र फ़िल्म में एक विद्रोही के रूप में नज़र आता है। मौजूदा व्यवस्था को लेकर उसके मन में अनेक सवाल उठते हैं। उसके मन मे घर के पुरुषों के लेकर भी घृणा है और वह हर सम्भव प्रयास करती है घर से भागने का। अंत मे वह निज़ाम साहब का घमंड तोड़ने और पिता को यह यकीन दिलाने में कामयाब हो जाती है कि उसका नौकर के साथ शारीरिक संपर्क हुआ है लेकिन वास्तव में फिल्में में पता चलता है कि रुखसार कैंडल से अपनी वर्जिनिटी खुद खत्म करती है इस प्रकरण के दौरान उसे बेशक दर्द होता है पीड़ा उसके चेहरे पर झलकती है पर वह जोर-जोर से हंसती है उसकी यह हंसी वास्तव में पुरुषवादी समाज से बदला लेने या उसे ठेंगा दिलाने की ओर इशारा करती है। दूसरा स्त्री पात्र अफ़साना वेश्यावृत्ति से खुद को बचाने के लिए घर की छत से कूद कर आत्महत्या करने का प्रयास करती है और अंत मे मर जाती है। उसका यह संघर्ष रुख़सार को बहुत कुछ सोचने पर विवश करता है।

इस फिल्म में सबसे ज्यादा सहानुभूति दर्शकों को जिस पात्र से होती है वह है रूही। रूही पूरी फिल्म में प्रत्येक परिस्थितियों से समझौता करती हुई दिखती है। वह टूटती नहीं है न ही आत्मदाह का प्रयास करती है न हीं रुखसार के समान पुरुषवादी सत्ता को चुनौती देती है। अफसाना के घायल होने के बाद उसे अफसाना के ग्राहकों को भी निपटाना होता है ऐसे में वह दोहरी शारीरिक मार झेलती है। ग्राहकों को निपटा कर वह अपने घर के रोज़मर्रा के कामों में लग जाती है इसके साथ ही घर आने वाले लोगों की कुदृष्टि से अपनी छोटी बहन रुखसार की रक्षा भी करती है। वह रुख़सार को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करती है। फिर चाहे वह ग्राहक हो या उसका अपना पिता। इतना ही नहीं, अपने पिता के क्रोध से बचाने के लिए वह पिता से लाख घृणा और नफरत होते हुए भी अपने उसे अपना शरीर सौंप देती है। फिल्म में यहाँ एक स्त्री का दूसरे स्त्री को बचाने के लिए समर्पण दिखाया गया है। जो पीड़ा वह ख़ुद झेल चुकी है उससे अंत तक रुखसार को बचाती है।

चौथा पात्र अजमल नामक एक व्यक्ति है जो अपने ही प्रेमिका को मोहब्बत के जाल में फंसा कर खब्बी को बेच देता है। इस प्रकार के लोगों की समाज में कमी नहीं है। अजमल ऐसे पुरुषों का प्रतीक है जो स्त्रियों के साथ धोका और छल में ही अपनी जीत समझते हैं। अफसाना के घायल होने के बाद भी वह उसके इलाज के लिए खब्बी से पैसा वसूलता है। अफसाना के मरने के बाद किसी और लड़की को अपने प्रेम जाल में फंसाने के लिए निकल पड़ता है। "अजमल नवी कुड़ी दिखाने के लिए कह रहा था।" यह खब्बी के संवाद से स्पष्ट हो जाती है। अफसाना के बाद रुखसार को भी अपने प्रेम जाल में फंसाने की कोशिश करता है जिसमे वह कामयाब नहीं हो पाता तो उसका ग्राहक बनकर उसके उसके सामने जाता है लेकिन दोनों ही परिस्थितियों में वह रुखसार द्वारा अपमानित किया जाता है। ऐसी भोली भाली लड़कियों को फंसाने वाले समाज में हर जगह मौजूद है इनकी ना कोई जाति होती है ना धर्म और ना ही ईमान। स्त्रियों को छलना ही इनका पेशा होता है रुखसार द्वारा अपमानित किए जाने पर वह निज़ाम के सामने रुखसार की पेशकश रखता है।

फ़िल्म की पृष्ठभूमि की बात करें तो उक्त फ़िल्म मुस्लिम परिवेश पर आधारित है जिसमे केवल चरित्रों के नाम ही मुस्लिम हैं उसके अलावा फ़िल्म में ऐसा कोई प्रतीक नहीं दिखाया गया है जो मुस्लिम समाज से सम्बंधित हो। और भी अच्छा होता कि फ़िल्म के पात्रों के नाम सार्वभौमिक होते तब इसका परिवेश कहीं अधिक व्यापक होता। फ़िल्म के तकनीकी पक्ष पर बात करें तो फ़िल्म का निर्देशन बहुत कमाल का है। पूरी फिल्म एक ही घर मे दिखाई गई है। पात्रों की संख्या भी गिनी चुनी है। पिता खब्बी बने मोहनकान्त, अजमल बनाम युवांग निज़ाम साहब बने दिग्विजय ओहल्यान ने अपने दमदार अभिनय से दर्शकों की भरपूर प्रशंसा प्राप्त की है। स्त्री पात्रों में रूही का किरदार निभाने वाली गीता सरोहा ने दृश्यों में जान फूंक दी है। अफ़साना का अहम किरदार निभाया है सौम्या राठी ने। रुख़सार बनी रुचिता देओल ने अपने ग़ज़ब के अभिनय से सबकी खूब तारीफ बटोरी है।

 इतनी कम उम्र में रुचिता का इतना गम्भीर अभिनय सिद्ध करता है कि वह एक लाजवाब अदाकारा हैं। पात्रों की दृष्टि से देखें तो जहाँ एक ओर पुरुष पात्र दर्शकों में घृणा पैदा करते हैं वहीं दूसरी ओर सभी स्त्री पात्र दर्शकों की भरपूर संवेदना और सहानुभूति बटोर ले जाते हैं। फ़िल्म चूंकि वेश्यावृत्ति के मुद्दे पर आधारित है पर इसका निर्देशन इतना ख़ूबसूरती से किया गया है कि विषय बोल्ड होने के बाद भी फ़िल्म कहीं से भी वल्गर नही लगती। संवाद छोटे सुगठित हैं। फ़िल्म में प्रयुक्त गाली गलौच भी परिवेश जनित हैं जो कहीं से थोपे हुए नहीं लगते।

फ़िल्म की कहानी की बात करें तो पूरी फिल्म रुख़सार पात्र के इर्दगिर्द घूमती है। एक ऐसी लड़की जिसके अंदर न केवल स्त्री अस्मिता व उसके अधिकार को लेकर अनेक प्रश्न है बल्कि मौजूद व्यवस्था को लेकर उतनी ही घृणा भी है। फ़िल्म के अंत मे वह पुरुषवादी व्यवस्था से अकेले लोहा लेती है। उसको ठेंगा दिखाती हुई ज़ोर ज़ोर से हँसती है। उसके सामने निज़ाम साहब बना पुरूष समाज खुद को ठगा हुआ सा महसूस करता है और अपना मुंह लेकर चलता बनाता है। फ़िल्म का आरंभ जिस विसंगति और बेचैनी के साथ आरंभ होता है वहीं अंत में निज़ाम साहब का अपना सा मुंह लेकर वापस जाना दर्शकों को थोड़ा सुकून-सा दिलाता है। फ़िल्म का अंत क्या होगा यह दर्शकों के विवेक पर छोड़ दिया गया है। रुखसार का विद्रोही होना दिखाता है कि वह पीढ़ीगत पेशे को स्वीकार नहीं करना चाहती। 

वह पढ़ना चाहती है। खुली हवा में सांस लेना चाहती है। वह पिता से बगावत करती है। असल में वो मौजूदा व्यवस्था से विद्रोह करती है। हालांकि वह स्वयं तो मुक्त नहीं हो पाती पर आगे आने वाली पीढ़ी के लिए मार्ग खोल देती है। उसे घर की छत से एक गली मुख्य सड़क तक जाती नज़र आती है यही उसके लिए आशा की किरण है। फ़िल्म के संगीत पक्ष बेजोड़ है। जब बैकग्राउंड म्यूज़िक बजता है तो वह दर्शकों के अंतर्मन को चीर कर रख देता है। इस म्यूज़िक में पीड़ा है विक्षोभ है स्त्री के अंतर्मन का। इस फ़िल्म का लाजवाब संगीत दिया है हिमांशु दहिया ने। पिंजरे की तितलियां शीर्षक सांग गाया है नितेश ने और गाने के बोल दिए हैं वरुनेन्द्र त्रिवेदी ने। कुल मिलाकर फ़िल्म रिलीज़ से पहले ही अनेक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पुरुस्कार जीत चुकी है।

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