शिक्षा का स्वरूप स्वावलंबी और रोजगार पूरक होना आवश्यक



लेखक > विजय सिंह बिष्ट 


आज से 50साल पहले कक्षा 7वीं और हायर सेकंडरी पास छात्रों को अध्यापकी और इण्टर पास को क्लर्क की नौकरी मिल जाती थी। मैं स्वयं बर्ष 1959ई0में हाई स्कूल के बाद जिला परिषदीय विद्यालय में नियुक्त हो गया था, मासिक वेतन मात्र 30रूपये थे। चलते चलते राजकीय विद्यालय से सेवामुक्त हुआ। आज हमारे पढ़ाये हुए विद्यार्थी भी प्रधानाध्यापक पदों से सेवामुक्त होकर एक अच्छी पेंशन लेकर आ रहे हैं।


इन्ही पदों पर नियुक्ति पाने के लिए एम,ए,पी,यच,डी आज दांव लगाने पर भी नियुक्ति नहीं ले पा रहे हैं। ऐसा लगता है ऊंची शिक्षा सामान्य स्तर की जीविका पाने में भी समर्थ नहीं है।शिक्षा का प्रचार प्रसार ज्यों ज्यों बढ़ता जा रहा है, रोजगार और काम की समस्या भी त्यों त्यों विकराल बनती जा रही है।
"काम चाहिए डिग्री नहीं" इस प्रकार के नारे कई बार दीक्षांत समारोह में जगह जगह सुने जाते हैं। हमारे देश में ऊंची शिक्षा वैसे भी मंहगी है हर व्यक्ति छात्र को मंहगी किताबें,कांलेज की फीस,आवास और रहन सहन के भार को वाहन नहीं कर सकता।
निर्धन माता पिता अपना पेट काटकर भी अपने बच्चों को शिक्षा दिला रहे हैं,जब वह डिग्रीधारी बेकारी के कगार पर खड़ा होता है तब मां बाप के साथ उसकी सारी आशाएं भी  भूसात हो जाती हैं। कल्पना करें वह हमारा अपना है उसके परिवार के साथ पूरे समाज और देश पर भी इसका प्रभाव ही नहीं धोखाधड़ी का असर दिखाई देता है।


उपलब्ध आंकड़ों से विदित होता है अपने देश में लाखों डाक्टर, इंजीनियरिंग करने वाले बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं वे दूसरा काम भी नहीं कर लेते, उनकी आशाओं को धूल धूसरित ही समझा जाएगा। चपरासी और क्लर्क जैसी नौकरी के लिए उन्हें आवेदन करना पड़ता है उनसे अच्छे तो अनपढ़ ही ठीक हैं जो पान की दुकान चलाकर अथवा रिक्शा चलाकर अपना और परिवार का पेट पाल रहे हैं। बर्ष1962-63ई0की बात है। एक सेमिनार में उत्तराखंड के कुछ जनपदों के उच्च शिक्षा अधिकारियों की बैठक छात्र -बृद्धि एवं ह्रास के संदर्भित आहुत की गई थी।


आज भी मुझे याद है जिला अधिकारी अपने अधिनस्थ को वे केंद्रीय विद्यालयों को और केंद्र वाले अपने क्षेत्रीय विद्यालयों के शिक्षकों को ग्रामीण क्षेत्र से विद्यालय न आने वालेछात्रों को  प्रवेश दिलाने के आदेश देकर छात्रबृद्धि करवा लेते थे।
लेकिन हिमाचल के शिक्षा अधिकारी का कहना था कि मैं स्वयं भी जाकर एक भी छात्र को प्रवेश न दिला सका। जब इस पर पूछा गया, तो अधिकारी महोदय का कहना था कि वहां के लोग भेड़ बकरियों का पालन करते हैंचरवाहे का काम भेड़ बकरी चराना है। यदि वह स्कूल जायेगा और पढ़ लिख कर नौकरी करेगा तो उसे महीने में एक भेड़ की कीमत का आधा वेतन ही मिल पायेगा।साथ में भेड़ बकरियों से जो अगली संतति ,ऊन का कारोबार, गोबर ,मांस का लाभ मिलता है वह अलग इसलिए वे बच्चे विद्यालय नहीं भेज सकते। हजारों भेड़ बकरियों की जिम्मेदारी परिवार पर ही तो है। भेड़ बकरी चराने वाले के पास बाइक, दूरबीन,थरमस में चाय और नाश्ता सामान्य सी बात है। गृह उद्योग के लिए ऊन का उपयोग अच्छी किस्म से पशमिना, कालीन,स्वेटर और कम्बलों को बनाया जाता है।शेष ऊन को तिब्बत के व्यापारी अच्छी कीमत देकर ले जाते हैं।मरने पर खाल और मांस अलग बिकता है। ये है स्वावलंबी और उद्योग पूरक शिक्षा। दूसरा उदाहरण मध्य प्रदेश में सामाजिक कार्यकर्ता बच्चों और बेटियों को पाठशाला में भेजने का भाषण दे रहे थे एक हवा बही और पूरा समर्थन मिल गया, किंतु एक आदमी उदास नजरों से कार्यकर्त्ता महोदय की देख रहा था।उसका एक ही बेटा था, उससे पूछा कि क्या तुम अपने बच्चे का भविष्य नहीं सुधारना चाहते हो?


भविष्य_किसान के मुख पर व्यंग के भाव आये,"स्कूल में भेजने से मेरे लड़के का भविष्य कितना सुधरेगा और बिगड़ेगा साहब! यह मैंने बहुत देखा है वह शहर से जब पढ़ लिख कर लौटेगा, तो उसे कुर्सी की जरूरत होगी, वह खेत पर नहीं जा पायेगा।उसको झोपड़ी अच्छी नहीं लगेगी। आज मेरा बेटा मेरे काम में हाथ बांट लेता है मुझे आशा है वह भविष्य में सारी खेती का काम संभाल लेगा, किंतु पढ़ लिख कर मेरी धरती बांझ हो जायेगी। उसके पीछे मिलने वाले सारे लाभ अन्नदाता के समाज को भी उपलब्ध नहीं होंगे। समझदार ग्रामीणों का यही उतर हमें शिक्षा की गुणवत्ता की ओर ले जाता है
"शिक्षा केवल शिक्षा के लिए"यह भ्रम तोड़ना ही पड़ेगा।
"शिक्षार्थ आइये।
सेवार्थ जाइये।।
आज हमारी शिक्षा प्रणाली में जिस प्रकार परिवर्तन होते आ रहे हैं उसमें शिक्षाविदों एवं समस्त राज्य सरकारों के निवेदनार्थ इस आसय से कि रोजगार पूरक शिक्षा व्यवस्था हो। युवा आक्रोस को मध्यनजर रखते हुए बेकारी समस्या का निदान कर लिया जाए।  स्वतंत्र के पश्चात शिक्षा में हस्तकला मिट्टी के खिलौने, बनाना रंगना तथा सूत और ऊन की कताई करना अनिवार्य था कक्षा पांचवीं की बोर्ड परीक्षा में हस्तकला अनिवार्य थी।इसको महात्मा गांधी की वर्धा योजना से जोड़ा जाता था। टीचर्स ट्रेनिंग में कताई बुनाई अथवा कृषि विषय लेने होते थे।मैं कताई बुनाई बिषय में था आज भी मुझे हथकरघा मिल जाए तो मैं शाल चादर और कम्बल बुन सकता हूं। इनके अध्यापक विषय विशेषज्ञ होते थे।काष्ठकला रंजनकला,चर्मकला के भी विषय होते थे। आज शायद ये विषय हैं भी या नहीं।इनका स्थान प्रशिक्षण संस्थानों ने ले लिया है।


इस प्रकार शिक्षा में यह सारी समय-समय पर की जाने वाले परीक्षण जहां शिक्षा को उन्नत शिखर पर ले जा रही है वहीं रोजगार पुरक शिक्षा का अभाव भी होता जा रहा है। इसीलिए आज का युवक बेरोजगार होकर अनैतिक राह को पकड़ कर भ्रष्टाचार और कुकृत्यो की ओर अग्रसर हो रहा है। इस लिए आवश्यक है कि शिक्षा में रोजगार पूरक शिक्षा को स्थान दिया जाए। आज का समृद्ध युवक देश को समृद्ध बना सकता है। भावी संतति ही देश का विकास करने में अपना योगदान देकर स्वयं काऔर  भारत मां का उत्थान कर सकता है।
      आशा है भारत सरकार के शिक्षा मंत्री शिक्षा की गुणवत्ता में आमूलचूल परिवर्तन लाने का अथक प्रयास करने की कृपा करेंगे। जिससे देश के शिक्षित नव युवकों को बेरोजगारी से मुक्ति मिल सके।


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