बद्रीनाथ पुनर्विकास परियोजना के लिए संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता

० चंडी प्रसाद भट्ट ० 
श्री बद्रीनाथ धाम में चल रहे पुनर्निर्माण एवं सौंदर्यीकरण के कारण पंच धाराओं में से दो धाराओं, कुर्म धारा एवं प्रहलाद धारा का पानी छीज हो गया है। यह भी बताया जा रहा है कि, दो बुल्डोजर(पोक्लैंड) मंदीर के निचले भाग में खुदाई कर रहे हैं। इन कार्यों के दुष्प्रभावों को लेकर कई आशंकाएं जन्म ले रही हैं। मैंने विगत 9 दशकों से इस क्षेत्र की अप्रितम, नैसर्गिक, प्राकृतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक धरोहर को अनुभव किया है। इसमें हो रही अंधाधुंध छेड़ छाड़ विगत कुछ समय से मेरे लिए अतीव कष्टप्रद रही है।

तीन दिसंबर 2022 को मुझे श्री बद्रीनाथ धाम के पुनर्निर्माण कार्यों के क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका रखने वाले भाष्कर खुल्वे से भेंट करने का अवसर मिला। मैंने उन्हें विशेषज्ञों की राय लेकर निर्माण कार्य को आगे बड़ाने की सलाह दी थी। इसी संदर्भ में मैंने 07जनवरी 2023 को प्रधानमंत्री मोदी एवं मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को पत्र लिखकर अपनी चिंताओं से अवगत कराया। मुझे 05 मई 2023 को एस.एम.एस द्वारा सूचित किया गया कि, शिकायत का निराकरण कर दिया गया है। बाद में मुझे यह ज्ञात हुआ कि मेरे पत्र को जिला पर्यटन अधिकारी चमोली को कार्यवाही के लिए भेज दिया गया है। यह बहुत आश्चर्य जनक है।

" बद्रीनाथ में हो रहे पुनर्निर्माण कार्य आपके निरिक्षण एवं मार्गदर्शन में हो रहे हैं। इस संबंध में निवेदन है कि, बद्रीनाथ धाम भूगर्भीय, भूआकृतिक दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। समय समय पर होने वाले हिमस्खलनो, भूकंपों और अलकनंदा नदी के कटाव के कारण पूर्व में बद्रीनाथ धाम अनेक विभिषिकाओं को झेल चुका है। इनमें वर्ष1803,1930,1949,1954,1979,2007,2013, 2014 में आई आपदाएं उल्लेखनीय है। इन्हीं कारणों से वर्ष 1974 में विरला ग्रुप के जय श्री ट्रस्ट द्वारा बद्रीनाथ धाम के स्वरूप को बदलने के प्रयासों का विरोध हुआ था और तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार के वित्त मंत्री श्री नारायण दत्त तिवाड़ी जी की अध्यक्षता में गठित समिति जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ भी थे, ने इस निर्माण कार्य पर रोक लगा दी थी।

मैं स्वास्थ्य एवं अन्य कारणों से विगत 4-5 वर्षों से श्री बद्रीनाथ धाम नही जा पाया हूँ। माणा गाँव के मेरे कुछ साथियों एवं बद्रीनाथ की यात्रा से लौटे कुछ परिचितों ने धाम में हो रहे पुनर्निर्माण कार्य के बारे में जानकारी दी। यह जानकारी भी दी कि, पंच धाराओं में से एक कुर्म धारा का पानी स्थानांतरित हो गया है। यह सुनना मेरे लिए अत्यंत कष्टप्रद था। एक तरफ से यह बद्रीनाथ धाम के स्वरूप को बदलने जैसा है।

बद्रीनाथ धाम के पुरातन स्वरूप एवं और स्थानों में मन्दिर परिसर, सिंह द्वार, भोगमंडी, पंच धाराएँ (प्रहलाद धारा, कुर्म धारा, भृगु धारा, उर्वशी धारा, इंद्र धारा) पंच शिलाएं (गरुड़, नर, नृसिंह, वराह एवं मारकंडेय) तप्त कुंड, नारद कुंड, सूर्य कुंड और ब्रह्म कपाल शामिल हैं। इसके स्वरूप में किसी भी प्रकार का परिवर्तन धाम के मूलभूत स्वरूप में परिवर्तन जैसा होगा। इससे बद्रीनाथ धाम की सुचिता, गरिमा एवं पारिस्थितिक स्थायित्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

मेरा अनुरोध है कि, यह सुनिश्चित किया जाय कि पुनर्निर्माण कार्यों का बद्रीनाथ धाम के पुरातन स्वरूप एवं उपरोक्त उल्लिखित स्थानों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। साथ ही साथ धाम में हो रहे निर्माण के अंतर्गत होने वाले खनन, निर्माण आदि का भी यथोचित आकलन इस दृष्टि से भी किया जाना चाहिए कि यह धाम की पारिस्थितिक स्थिति के अनुकूल है और इससे धाम के मूलभूत स्वरूप पर कोई दुष्प्रभाव नही पड़ेगा।"

श्री बद्रीनाथ घाटी देव दर्शनी से माणा तक पाँच किलोमीटर लंबे एवं एक किलोमीटर चौड़े हिमनद द्वारा निर्मित U आकार की घाटी है। भूगर्भ विद प्रो. एम.पी.एस.बिष्ट का कहना है कि बद्रीनाथ घाटी में हिमनद द्वारा लाया गया मलबा हिमोड (मोरेन) निष्पादित है। अलकनंदा के दोनों तटों पर स्थित इस मलबे के ऊपर लगातार चट्टानों का टूट टूट कर निचली घाटी में बड़े बड़े स्क्रीफेन के रूप में जमा हैं। टूटते हिमनद एवं गुरत्वाकर्षण के द्वारा एवं फ्रोस्ट एक्शन के माध्यम से निर्मित मलबे के ऊपर नर पर्वत की तलहट्टि में दो सुंदर आँख के आकार की झीलें भी निर्मित हुई है,इन्हें शेषनेत्र कहा जाता है।

बद्रीनाथ घाटी की शुरुआत में ही कंचन गंगा है, जो कि कुबेर भंडार हिमनद से निकलती है। देवदर्शनी से पहले कंचन गंगा अलकनंदा में समाहित हो जाती है। इसके बाद नीलकंठ पर्वत से उद्गमित ऋषि गंगा बामणि गाँव के पास मिलती है। सरस्वती नदी माणा दर्रे से जन्म लेकर अनेकों छोटी बड़ी धाराओं को समेटते हुए माणा के पास केशव प्रयाग में अलकनंदा में समाहित होती है। अलकनंदा सतोपंथ हिमनद एवं भगीरथ खर्क हिमनद के संगम जिसे अलकापुरी बांक के नाम से जाना जाता है, प्रवाहित होती है। ये छोटी बड़ी धाराएं समय समय पर बौखलाती रहती हैं। जिससे जान-माल का नुकसान होता रहता है। यह दुष्प्रभाव आज भी यत्र-तत्र देखा जा सकता है।

नारायण एवं नर पर्वत वन तुलसी सहित कई अन्य ब्रह्म कमल,फैन कमल आदि वन्य पुष्पों से आच्छादित है, साथ ही बुरांस प्रजाति का सेमरु एवं अमेष ( सिवकथोर्न) की झाड़ियाँ भी विद्यमान हैं। एक तरह से बद्रीनाथ प्राकृतिक सौंदर्य का तीर्थ भी है। मै वर्ष 1940 में सात वर्ष की उम्र में पहली बार तत्पश्चाद् सातवें दशक के शुरुआत से लगभग प्रतिवर्ष जब जब इस क्षेत्र में अवलांच, बाड़ या अन्य प्रकार की आपदाएं आयी, कई बार बद्रीनाथ धाम गया। इस उच्च हिमालयी क्षेत्र की भूगर्भीय, भूआकृतिक संवेदनशीलता और पूर्व में हुए प्राकृतिक आक्रोश को देखते हुए यह मेरा सुविचारित दृष्टिकोण है कि बद्रीनाथ क्षेत्र में किसी भी निर्माण कार्य को करने से पहले विस्तृत भू वैज्ञानिक एवं पारस्थितिक आकलन कर लेना चाहिये।

 यहाँ निरंतर होते हिमस्खलन और उससे पूर्व चलने वाली बर्फ़ीली आँधी एवं नर नारायण, नीलकंठ पर्वत से आने वाले हिम बांकों का अध्यन्न आवश्यक है। इस अध्यन्न में नर नारायण एवं नीलकंठ पर्वत के ग्लेशियरों के मुहानों की भूमि स्थिरता, अलकनंदा नदी के किनारों के शिलाखंडों का नदी के द्वारा होने वाले कटाव का संबंध, भूमि भार वहन क्षमता आदि का विस्तृत आकलन शामिल होना चाहिए।

इसी प्रकार बद्रीनाथ धाम के धार्मिक महत्व को देखते हुए पूरे परिसर के निर्माण में शिल्प शास्त्र का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए। यह उल्लेखनीय है कि पूर्व में स्वर्गीय श्री हरिगोविंद पंत ने बद्रीनाथ मंदिर कमेटी के कार्यकाल में बद्रीनाथ के वातावरण को शोभायमान एवं गरिमायुक्त बनाने के लिए तथा नव निर्माण की योजना का कर्यान्वयन कराने के लिए विशेषज्ञ कमेटी का गठन किया था। इसके अंतर्गत नारद कुंड, सूर्य कुंड, गौरी कुंड की सजावट तथा तप्त कुंड को अष्टपहल बनाकर उसका धार्मिक स्वरूप रखते हुए पुनरुद्धार एवं विस्तार की योजना थी, 

साथ ही आदि केदारेश्वर- शंकराचार्य से लेकर सिंह द्वार के सामने तक चौडा प्लेटफार्म बनाने की योजना थी, इस कार्य के लिये सोमनाथ मंदिर निर्माण के ख्याति प्राप्त अभियंता श्री प्रभाशंकर भाई सोमपुरा को सलाह एवं सहायता के लिए निमंत्रित किया गया था । श्री सोमपुरा द्वारा बनायी गयी योजना के अनुसार आदि केदारेश्वर मंदिर का ही जीर्णद्धार हो सका

श्री सोमपुरा ने सलाह एवं राय व्यक्त की थी कि, कृपया शिल्पशास्त्र के सिद्धातों के अनुसार निर्माण करें, पत्थर या किसी अन्य से, शिल्प शास्त्र मंदिर और उसके परिसर में लोहा- सिमेंट एवं कंक्रीट का उपयोग वर्जित करता है। सभामंडप, गुंबद बद्रीनाथ मंदिर से बड़ा नहीं होना चाहिए। इस महत्वपूर्ण सलाह के अनुरूप समग्रता से पूरे तीर्थस्थल जिसमें सप्त कुंड का पुनर्निर्माण या सभा मंडप के नव निर्माण सम्मिलित हैं में निर्माण कार्य पारंपरिक शास्त्रीय शैली के अनुरूप होने चाहिए।

अंततः श्री बद्रीनाथ भारतीय धर्म का स्रोत है, तथा राष्ट्रीय धाम है। इसका नैसर्गिक सौंदर्य ही अपने में अप्रितम है। नर-नारायण एवं नीलकंठ पर्वत, चारों ओर फैले ग्लेशियर बद्रीनाथ धाम के सौंदर्य का भाग हैं। बद्रीनाथ जी की आरती "पवन मंद सुगंध शीतल हेम मंदिर शोभितम् , निकट गंगा बहत निर्मल-------।" इस सौंदर्य की विशिष्टता का वर्णन है। यह हम सभी का ही दायित्व है कि, इस नैसर्गिक सौंदर्य को अक्षुण रखें। इस क्षेत्र के पुनर्निर्माण व सौंदर्यीकरण को भारत के मैदानी एवं समुद्र तटीय क्षेत्रों में किये गये कार्यों के समकक्ष कदापि नहीं देखा जाना चाहिये।

पुनर्निर्माण एवं सौंदर्यीकरण करने से पूर्व बद्रीनाथ क्षेत्र के बारे में परंपरागत जानकारी रखने वाले लोगों, विशेषज्ञों, संतों एवं श्रद्धालुओं की राय एवं सहयोग भी लिया जाना चाहिये। श्री बद्रीनाथ धाम की शक्ति व आस्था से मेरा विश्वास है कि निर्माण कार्य धाम के मूलभूत स्वरूप का सम्मान करते हुए पारस्थितिकी के अनुकूल होगा।

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