हिमालय राष्ट्रीय मुद्दा है, राजनैतिक नहीं

कुलभूषण उपमन्यु 0 
हिमालय की पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय सुरक्षा एक राष्ट्रीय मुद्दा है और सीमाओं की सुरक्षा जितना ही महत्वपूर्ण भी है। आखिर हम सीमाओं की सुरक्षा अपनी मानव आबादी की खुशहाली, संसाधनों के सदुपयोग और सुरक्षा एवं सतत विकास के लिए ही तो करते हैं। हिमालय एक सबसे कम आयु की पर्वत शृंखला है जो अभी तक भी निर्माण की अवस्था में है। इस कारण इसकी चट्टानें अभी तक भी भुरभुरी और नाजुक हैं। हिमालय की पारिस्थितिकीय सुरक्षा का मसला एक देशीय भी नहीं है। हिमालय के आगोश में बसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन, भूटान, बांग्लादेश, और म्यांमार तक सभी हिमालय में हो रही पर्यावरणीय गडबड़ियों के शिकार हो रहे हैं।

 होना तो यह चाहिए था कि हम सभी हिमालयी परिस्थिति से प्रभावित देश आपस में मिलकर कोई साझा कार्यक्रम बनाने की समझदारी विकसित करते, किन्तु स्थिति तो यह है कि हम अपने देश के अंदर ही हिमालय के स्वास्थ्य के लिए चिंतित नहीं हैं। झेल तो सभी देश रहे हैं। चीन, पकिस्तान बांग्लादेश और भारत खास तौर पर बाढ़ों के साल दर साल शिकार हो रहे हैं, किन्तु हम न तो अपनी गलतियां मानने को तैयार हैं और न ही उन्हें पहचानने को तैयार हैं। तकनीक के अहंकार ने हमें अंधा बना दिया है। हम सोचते हैं कि हम इस नाजुक पर्वत से मनमानी छेड़छाड़ करके इसकी नाजुकता पर पार पा सकते हैं। किन्तु साल दर साल बढ़ती जाती तबाही से भी हम सीखने को तैयार नहीं हैं। चीन जो आर्थिक रूप से शक्तिशाली देश है, वह भी इस दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं कर पा रहा है,

 बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जक बन गया है। उसकी होड़ में बाकी एशियाई देश भी पीछे रहने के लिए तैयार नहीं हैं। वैश्विक तापमान वृद्धि में लगातार अपना योगदान बढ़ाते जा रहे हैं, जिसके कारण जलवायु परिवर्तन का जिन्न हमारे सामने मुंह बाए खड़ा हो गया है। पिछले साल की बाढ़ों से हुई तबाही से पाकिस्तान आज तक नहीं उबर पाया है, किन्तु इन सब देशों के प्राथमिकता वाले मुद्दे अपने अपने हिमालय की संभाल करने के आसपास भी नहीं हैं। हम भी कहां पीछे रहने वाले हैं। बेतरतीब सड़क निर्माण, बड़े, छोटे बांध निर्माण, हिमालय के सीने तक रेल ले जाने की योजना, पर्यटन का मनमाना स्वरूप, नदी किनारे तक आवास बनाने की अहंकारी सोच, सारे विकास के नाम पर, बिना पूरी वैज्ञानिक समझ से किए जा रहे काम हिमालय की नाजुक ढलानों को अस्थिर करते जा रहे हैं। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा कि 'मैं स्थिर रहने वालों में हिमालय हूं'। 

उस स्थिर हिमालय को हमने अस्थिर कर दिया है। इस वर्ष ताजा बरसात में ही हिमाचल प्रदेश में प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखाया है। 150 से ज्यादा लोगों की जान चली गई। 8000 करोड़ रुपये की निजी और सार्वजनिक संपत्ति की हानि हो चुकी है। बरसात अभी भी सिर पर ही है। कुल्लू, मंडी, शिमला, सिरमौर, और कांगड़ा जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। हिमालय में पहले भी बाढ़ का प्रकोप होता रहा है। किन्तु जलवायु परिवर्तन ने उसकी तीव्रता को और बढ़ा दिया है। हम इस तथ्य से भली भांति परिचित भी हैं। फिर भी उस ओर ध्यान देने की हमारी मंशा ही नहीं होती है।

हमारी लड़ाइयां राहत राशि ज्यादा से ज्यादा लेने तक सीमित हो जाती हैं। केंद्र सरकार भी कुछ राहत राशि दे कर अपनी जिम्मेदारी का इतिश्री कर लेती है। बरसात निकल गई और सब भूल जाते हैं। हमने अपनी गलत हरकतों को छुपाने के लिए प्राकृतिक आपदा को बहाने की तरह प्रयोग करने की कला सीख ली। इसलिए सरकारें और निहित स्वार्थ, भारी बरसात के कारण तबाही हुई ऐसा साबित करने में अपनी शक्ति लगा देते हैं। हमने अपनी गैर जिम्मेदार ढांचागत विकास गतिविधियों के कारण तबाही को कितना आमंत्रित किया है, इस बात को सामने लाने से बचते रहते हैं। जो लोग इस तरह के विकास की कमियों को उजागर करने का साहस करते हैं उन्हें विकास विरोधी घोषित कर दिया जाता है।

 यह एक आधुनिक गाली की तरह उपयोग होने वाला शब्द बन गया है। किन्तु सच देखने-दिखाने के लिए और स्थिति का वैज्ञानिक विश्लेषण करने के लिए हमें यह गाली खाने का खतरा तो उठाना ही चाहिए। हम विकास विरोधी हैं भी नहीं। केवल गलत दिशा और तकनीकों के विरोधी हैं। हमारी आवाज हर सरकार के समय एक ही रही है। चाहे भाजपा हो या कांगेस। इसलिए हमें किसी दल का समर्थक या विरोधी मानने की गलती भी न की जाए, क्योंकि इससे हम एक राष्ट्रीय मुद्दे को दलगत राजनीति में घसीट कर महत्वहीन बनाने का गुनाह कर रहे होंगे। हम भारतीय परंपरा पर गर्व करते हैं किन्तु यह भूल जाते हैं कि भारतीय परंपरा तो मूल रूप से पर्यावरण मित्र जीवन पद्धति अपनाने पर बल देकर ही गौरवमय हुई है।

वर्ष 2012 में शिमला में हिमालयी राज्यों का जलवायु परिवर्तन पर कॉनक्लेव हुआ था, जिसमें उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के साथ तत्कालीन केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी शिरकत की थी। इस दौरान हिमालय नीति अभियान द्वारा हिमालय में अवैज्ञानिक तरीके से विकास के कारण होने वाली तबाहियों के बारे में प्रदेश की जनता की चिंताओं से संबंधित ज्ञापन दिया गया था। इसके बाद सरकार द्वारा जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में एक्शन प्लान बनाया गया। उसमें भी दरपेश खतरों को चिह्नित किया गया था और सुधार के लिए एक कार्ययोजना बनाई गई थी।

 इसमें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की गंभीरता को कम करने और जलवायु परिवर्तन के अनुरूप ढालने की तैयारी की बात की गई थी। उसमें स्पष्टत: मुद्दों को परिभाषित करने के अच्छे प्रयास हुए थे, किन्तु जमीन पर कोई हलचल दिखाई नहीं देती है। खासतौर पर निर्माण गतिविधियों में कोई सुधार दृष्टि गोचर नहीं होता है। 2021 में कार्ययोजना को पुन: वर्तमान जरूरतों के अनुसार संशोधित किया गया। 2008 की केन्द्रीय जलवायु परिवर्तन पर कार्ययोजना के अनुरूप हिमाचल प्रदेश में भी चिह्नित मुद्दों पर नीतियां बनाई गईं। उनमें कुछ ही पर कार्य हुआ, शेष नीतियां जमीन पर उतरने का इंतजार कर रही हैं। किन्तु सड़कों वाले प्रभाग में सड़क सुरक्षा, पर्यावरण मित्र वाहनों को टैक्स प्रोत्साहन और वैकल्पिक परिवहन व्यवस्था रोप-वे आदि के प्रोत्साहन के स्वागत की बात तो रखी गई है 

किन्तु सड़क निर्माण द्वारा हो रही वनों की तबाही और अवैध डंपिंग द्वारा भूस्खलन का कोई जिक्र नहीं है और न ही सड़क निर्माण तकनीक सुधार कर हिमालय के परिस्थितिक संतुलन को हो रहे नुकसान से बचने की ओर कोई ध्यान दिया गया है। टिकाऊ विकास के लिए टिकाऊ सड़क निर्माण चाहिए, किन्तु उसकी बात नहीं की गई है। हिमालय में टिकाऊ विकास के लिए हर गतिविधि को टिकाऊ बनाना पड़ेगा। नियोजित शहरी और ग्रामीण विकास की नीति भी बनी किन्तु नदी किनारे तक ब्यास बेसिन में भवन निर्माण की ओर ध्यान क्यों नहीं गया।

उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश हर वर्ष ऐसी तबाही का शिकार हो रहे हैं। इससे सबक लेते हुए केंद्र सरकार को हिमालय क्षेत्र में विकास का पर्यावरण मित्र मॉडल, जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना में शामिल करना चाहिए। किन्तु केंद्र की जलवायु परिवर्तन पर संवेदनशीलता भी दिखावटी सिद्ध हो रही है। इसका उदाहरण वर्तमान वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन है। इसमें एलओसी और एलएसी से 100 किलोमीटर तक वन भूमि का उपयोग परिवर्तन के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से पूर्वानुमति का प्रावधान हटा दिया गया है। यह ठीक है कि सुरक्षा के लिए जरूरी परियोजनाओं के मामले में आगे बढ़ना जरूरी होता है। 

किन्तु वर्तमान में भी तो भूमि उपयोग बदलने की व्यवस्था वन संरक्षण अधिनियम 1980 में विद्यमान है। उससे ही अभी तक की विकास परियोजनाएं बनाई गई हैं। आप अतिरिक्त स्टाफ लगा कर उसे जल्दी इजाजत दिलाने की व्यवस्था कर सकते हैं। वर्तमान व्यवस्था कुछ जवाबदेही तय है। नए संशोधन से जवाबदेही हट जाएगी जिससे निर्माण कार्य में और ज्यादा लापरवाही होने लगेगी। सीमा से लगता 100 किलोमीटर का क्षेत्र ही हिमालय का सबसे संवेदनशील क्षेत्र है। 

हम आशा करते हैं कि सरकार केंद्र स्तर पर इन मुद्दों को वैज्ञानिक कसौटी पर कस कर देखेगी और हिमालय को सुरक्षित रखने के अपने घोषित लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में सुनियोजित हिमालय विकास नीति बनाने की दिशा में गंभीर प्रयास करेगी। हिमाचल प्रदेश में हुए गंभीर नुकसान के कारणों को वैज्ञानिक आधार पर जानने के लिए निष्पक्ष एक्सपर्ट जांच कमेटी द्वारा असली स्थिति की जानकारी प्राप्त की जानी चाहिए ताकि आगे के लिए वास्तविक सुधारों पर आधारित नीति बनाई जा सके।

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