कविता // एकाकी जीवन जीना सीखें
विजय सिंह बिष्ट एकाकी जीवन जीना सीखें। जीवन साथी कब बिछुड़ जाये, पग पग पर मौत खड़ी है, जाने कब बुलावा आ जाये। उगता सूरज लिए लालिमा, सांझ ढले धीरे ढल जाए। अपना भी उदय हुआ है, कब मौत गले लग जाये। एकाकी जीवन जीना सीखें, जीवन पथ पर कौन भला , किस राह पर कहां रुक जाये। खिलता धीरे पूनम चांद कभी, अमावास में पूरा छिप जाये। नदिया बहती पर्वत शिखर से, घुलते मिलते सागर में मिल जाते। अपना भी जीवन बहता पानी, जाने कहां तिल तिल मर जाये। खिलते पत्ते नव योवन लेकर, जाने कब पतझड़ में गिर जाये। भव सागर में जीवन नाव खड़ी है। ईश्वर जाने डूबे या पार लग जाये। साथ उड़ते पंछी नील गगन में, उड़ते थकते कहीं बिछुड़ न पाये। हम भी साथी जीवन भर के, पता नहीं कौन दिशा कब भटक जाये। एकाकी जीवन जीना सीखें, कब जोड़ा छूटे या रह जाये। यह श्रृष्टि का खेल अनोखा, कोई आये कोई जाए। जीवन जीना एकाकी सीखें, हंसों का जोड़ा कब छूट जाये।