बुढ़ापे के रंग,संगनी के संग


विजय सिंह बिष्ट 


बुढ़ापे के रंग, संगनी के संग
सुबह सांझ जब बुढ़िया आती है,
चंद्रमुख से जरा घूंघट  हटाती है,
जब शुभ रात्रि और शुभ प्रभात कहूं,
बेचारी चरण वंदन कर जाती है।


प्यार भरा कुछ बोलूं,
मंद मुस्कान के संग लजाती हैं,
प्रसंन्न चित में वह चंद्रमुखी,
कटुमुद्रा में सूर्य मुखी बन जाती हैं
थोड़ी सी बात में कभी चिढ़ जाये,
कभी अंदर का लावा उगल जाती हैं।


नदिया की सी प्रबल धारा,
छोड़ किनारे मध्य में आ जाती हैं
बसते एक ही नीवड़ में,
कभी पूरब पश्चिम बन जाती हैं।


शांत भाव जब उभरे मन में,
सागर सी शीतल हो जाती हैं,
जरा जरा सी बातों में,
कभी हंसती कभी रूठ जाती हैं,
कभी शेरनी सी बन जाये,
कभी भीगी बिल्ली बन जाती हैं।


कितना कोमल दिल वाली हैं,
कभी नैराश्य निष्ठुर बन जाती हैं,
बुढ़ापे में जब जवानी भाये,
जीवन के मधुर गीत गुनगुनाती हैं।
कभी मांग पूरी नहीं हुई,
जाके कोप भवन सजाती हैं।
 मायके की यादों में खोई,
कभी हंसती कभी रुवांसी हो जाती हैं,
मेरी हर तकलीफों में,
बाहर भीतर करके बुदबुदाती हैं।


फिर भी उनका मुझ पर वरदहस्त है,
ममता से मेरा अंग अंग सहलाती हैं,
गंगा यमुना का सा ये पावन संगम,
 सुहृदयआकर गले लग जाती हैं
बुढ़ापे के एक दूजे के सहारे,
आपस में लकुटिया बन जाते हैं


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