"मुंशी प्रेमचंद के कथा -साहित्य का नारी -विमर्श"



सुरेखा शर्मा,लेखिका / समीक्षक 


[ 31 जुलाई 1880,140वीं जयंती पर प्रस्तुत विशेष आलेख ]


स्त्री -विमर्श में प्रेमचंद का योगदान नींव की ईंट की तरह है।जो समाज निर्माण में अपनी अहम भूमिका निभाता है जिसके बिना समाज अधूरा है।वह पुरुष को आधार देती है,स्पर्धा नहीं करती। यह वह स्त्री है जो परिवार, समाज तथा राष्ट्र का निर्माण करती है। प्रेमचंद जी के नारी पात्रों ने शारीरिक सौंदर्य को महत्व न देकर हमेशा संघर्ष, परिश्रम, नैतिक मूल्य, मानवीय मूल्य और सच्चाई को महत्व दिया गया है।२१वीं सदी में जहां एक ओर नारी आदर्शों में भौतिकता के प्रति आकर्षित हो रही ऊं, वहां ऐसे समय में प्रेमचंद के नारी पात्र एक सुखद एहसास दिलाते हैं।ये नारी पात्र पाश्चात्य सभ्यता की ओर आकर्षित भारतीय नारी के समक्ष एक चुनौती बनकर खड़ी हो जाती हैं। अतः नारी में अधिकार सजगता एवं स्वयं निर्णय लेने की क्षमता की पहल मुंशी प्रेमचंद ने ही की.

एक स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु जितने भी मुक्ति संघर्ष हुए हैं उनमें से एक है 'नारी चिंतन'।समाज निर्माण में स्त्री की भूमिका मुख्य होती है।धर्म ग्रंथों में स्त्री को संसार की जननी कहा गया है। आज भी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नारी पदार्पण कर चुकी है।यही  नारी चिंतन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में 'नारी विमर्श के नए रूप में हमारे समक्ष आ रहा है । इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि नारी पक्ष में लिखा गया साहित्य आज जिस व्यापक रूप में चर्चित हो रहा है उसका प्रारंभ प्रेमचंद काल  से  ही हो गया था । महिला सशक्तिकरण, महिला दिवस ,महिला दशक आदि । 


स्त्री अधिकारों के मिलने  से आज नारी अपने अधिकारों के प्रति सजग हो उठी है।लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य  में देखा जाए तो आज भी हमारे सामने ऐसी सामाजिक विसंगतियां हैं जो महिलाओं की गरिमा के अनुकूल नहीं है। देश में ,समाज में , महिलाओं का सशक्तिकरण होना आवश्यक है ।आज साहित्यकारों ने अपने- अपने दृष्टिकोण से विमर्श को रखा है । कहीं दोनों को समान  माना  गया है ,तो कहीं स्त्री स्वयं   को परंपराओं के बंधन से मुक्त कर आधुनिकता की दौड़ में दौड़ रही है ।आज वह इतनी आगे निकल चुकी है कि हर क्षेत्र में अपनी अलग छवि बना ली है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार से ही स्त्री आज आर्थिक रूप से निर्भर हो सकी है । मुंशी प्रेमचंद स्त्रियों की शिक्षा का समर्थन करते हैं। उन्हें पता था कि एक शक्ति संपन्न स्त्री ही समाज का सर्वांगीण विकास कर सकती है ।साथ ही साथ नारी के अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक होने को सही मानते हैं। यही विचार कथाकार मैत्रेयी पुष्पा के हैं ।उनका कहना है कि- "उच्च शिक्षा व आर्थिक स्वावलंबन स्त्री मुक्ति को सुनिश्चित करता है।"


प्रेमचंद जी के कथा साहित्य का अपना स्त्री विमर्श  है। अतः आधुनिक स्त्री विमर्श के कुछ तथ्य को हम इनके कथा साहित्य में देख सकते हैं ।वास्तव में स्त्री की अस्मिता तथा समाज व परिवार में सम्मान जनक भूमिका तथा उसके अधिकारों व दायित्वों से संबद्ध आयामों पर विचार व चिन्तन ही स्त्री विमर्श है ।  भारतीय सामाजिक संरचना में स्त्रियों की जैविक एवं मानसिक स्थिति को प्रेमचंद जी ने अपनी कथा साहित्य के माध्यम से उजागर किया है ।उनकी रचनाओं में स्त्रियां दयनीय नहीं मिलती त्याग, समर्पण, निष्ठा, नैतिक मूल्य,  भावुकता जैसे  मानवीय  संवेदनाओं के साथ -साथ मन के स्तर पर भी चेतनाशील हैं।यह चेतना  उनमें परिवार  एवं दांपत्य  संबधों से जोड़े रखती है ।यही सबसे बड़ा  कारण  है कि उनमें संघर्ष करने की कशमकश चलती रहती है ।


मुंशी प्रेमचंद ने हिन्दी साहित्य उपन्यास जगत को 15 उपन्यास दिए।उनके उपन्यासों में नारी की आदर्श छवि का अंकन हुआ है।दरअसल प्रेमचंद आदर्शवादी कथाकार थे।यही कारण है कि उनके कथा साहित्य में नारी पात्र भी  विभिन्न आदर्शों को अपने भीतर समेटे हुए हैं। 'प्रेमा' उपन्यास की प्रेमा एक आदर्श  प्रेमिका है । वह पूर्णा से कहती है, 'यहां भी यही ठान ली है कि चेरी बनूंगी तो उन्हीं की।' वह अमृतराय से बहुत प्रेम करती है।इसके बाद  भी वह अपने माता-पिता की इच्छानुसार दाननाथ से विवाह कर लेती है । उपन्यास की नायिका पूर्णा आदर्श भारतीय नारी है।पति की मृत्यु के बाद वह फूल तक का त्याग कर देती है ।


'वरदान 'उपन्यास की सुशीला, माधवी,सुवामा,विरजन आदि नारी चरित्र भी आदर्श नारी चरित्र हैं।सुशीला और विरजन दोनों मां-बेटी में सेवा भावना कूट-कूटकर  भरी है। सुवामा के बीमार होने पर वे दोनों उसकी सेवा में लगी रहती हैं।माधवी का चरित्र भी भारतीय नारी का आदर्श प्रस्तुत करता है ।प्रेमचंद के स्त्री -पात्र मालती तथा उसकी बहनें सरोज एवं वरदा स्त्री विषयक  शहरी निर्णय  की संकल्पना को चरितार्थ करते हैं।ग्रामीण परिवेश  में धनिया सिलिया एवं सोना भी  पीछे नहीं है।जमींदार की कन्या मीनाक्षी तो अपने अय्याश पति को हंटर से मारकर दंडित करने में भी नहीं हिचकती।प्रेमचंद का यह अपना विमर्श है। सेवासदन की नायिका सुमन और सगर्वा स्वाभिमानी नारी है।प्रेमाश्रम' की गायत्री सरल,निष्कपट और प्रेममयी नारी है। उसके आदर्श चरित्र के कारण ही उसे सिनेमाघर के भीतर महापुरुष के साथ बैठने में असहजता  महसूस होती है ।वह आदर्श और पतिपरायण भारतीय नारी है ।परपुरुष के छू लेने से उसे अपना सतीत्व नष्ट होता दीखता है ।घर आने पर वह पति के चित्र  को छाती से लगाए देर तक खड़ी रोती है। वह गरीबों की हमदर्द है और उनका हित चाहती है।


इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि स्त्री एवं पुरुष  दोनों के सामंजस्य बिना सृष्टि की उत्पत्ति  व उसके रहने की कल्पना भी नही की जा सकती ।दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं न कि विरोधी या प्रतिस्पर्धी। शायद ही किसी अन्य रचनाकार ने समझा हो, इस सत्य को हम नकार नहीं सकते जितना प्रेमचंद ने समझा। 'सती' की नायिका का यह कथन -"मैं जानती हूँ कि मैं मर भी जाती, तो मेरा सिरताज जन्म भर मेरे नाम को रोता रहता।ऐसे ही पुरुषों की स्त्रियां उन पर प्राण देती हैं। 'गोदान' उपन्यास के ग्रामीण पात्र धनिया और होरी तथा शहरी पात्र मि•मेहता और मालती दो विभिन्न विचारधारा के होने बावजूद भी अंत में एक  दूसरे के पूरक बन जाते हैं।धनिया के स्वभाव में कर्कशता होने के बावजूद उसमें पति-परायणता, स्पष्टवादिता और निर्भीकता जैसे गुण पाए गए हैं।


वह भारतीय किसान की आदर्श भारतीय पत्नी है।उपन्यास के प्रारंभ में जब होरी रायसाहब के यहां जा रहा होता है, तब वह द्वार पर खड़े होकर एक टक देखती रहती है।उस समय उसकी मनःस्थिति का चित्रण करते हुए उपन्यासकार कहता है, वह जैसे अपने नारीत्व के सम्पूर्ण तप और व्रत से अपने पति को अभ्यदान दे रही थी।'रंग भूमि ' की सोफिया और विनयसिंह के बीच का संबंध  भी इसी प्रकार का है ।स्त्री -पुरुष का संबंध मैत्री का है।ईसाई धर्म की सोफिया विनयसिंह से प्रेम करती है ।।शहरी पात्रों में यह भाव अधिक है ।तत्कालीन परिवेश में स्त्री -पुरुष के इस सूक्ष्म रूप को इतनी ताकत के साथ रखना प्रेमचंद जी के ही वश की बात थी।सिलिया एवं मातादीन विजातीय हैं,किंतु गैरजाति के होने के बाद भी उनके संबंध जातिवाद की अग्नि में नहीं झुलसते ।


प्रेमचंद का स्त्री विमर्श यह भी है कि वह व्रत के बदले व्रत,उपासना के बदले उपासना चाहती है।गोपा का यह कथन, 'स्त्री को जीवन में प्यार न मिले तो उसका मर जाना ही अच्छा है ।'  यह कथन आज के स्त्री विमर्श की अवहेलना करता है ।आज के विमर्श की तरह प्रेमचंद का विमर्श सोच भी नही सकता था कि स्त्री को अगर पति का प्यार न मिले तो किसी परपुरुष की ओर जाए क्योंकि संसार में उसके लिए केवल पति ही जानने योग्य विषय नही है बल्कि उसे संसार जानने की भी इच्छा है । प्रेमचंद जी ने  स्त्री जागरण का संदेश भी दिया पर उनके विचार में पाश्चात्य उच्छृंखलता नहीं आनी चाहिए ।उन्होंने स्त्री स्वतंत्रता को केवल आत्मस्वावलंबन की आवश्यकता  तक माना है।पुरुष प्रधान समाज भले ही 'अलग्योझा' की मूलिया को कहता रहा, ''मारे घमंड के धरती पर पांव न रखती थी,आखिर सजा मिल ही गई कि नहीं?


अब घर में कैसे निर्वाह होगा?वह किसके सहारे रहेगी ? " पर इसमें भी कोई अतिशयोक्ति नहीं कि वे स्त्री को कभी झुकते अथवा कमजोर देखना नहीं चाहते ।उसमें भी मान -सम्मान है, स्वयं पर विश्वास है ।वे एक ऐसी स्त्री का निर्माण करना चाहते हैं जो समाज में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए संघर्षरत रहे  गोदान के जमींदार की कन्या मीनाक्षी में यही भाव देखने को मिलता है ।मालती पढ़ी-लिखी स्त्री है।प्रगतिशील विचारधारा की स्त्रीहै।पर मीनाक्षी सीधी व मूक स्त्री है।स्त्री -पुरुष में समान भाव को नही मानती,किंतु अपने 'स्व' की रक्षा हेतु अपने अय्याश पति को हंटर से मारकर ऐसे पुरुष प्रधान समाज के शोषित रूप पर प्रहार करती है ।अधिकार की चर्चा आधुनिक स्त्री विमर्श का एक अविभाज्य रूप है ।सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक, धार्मिक के साथ -साथ दैहिक तथा मानसिक सारे इसमें आ जाते हैं।प्रेमचंद के काल में इन अधिकारों को स्त्री के परिप्रेक्ष्य में तो सोचा भी नहीं जा सकता क्योंकि न तो स्थितियां और  न ही परिवेश अनुकूल था ।


परन्तु  प्रेमचंद ने इनमें से कई अधिकार जरूरी माने हैं। 'बेटों वाली विधवा ' की दुर्दशा बेशक बेटों के ही कारण हुई हो पर 'फूलमती' की बात सर्वमान्य थी।वे स्त्री के सक्षम होने में विश्वास रखते थे  पति के होने या न होने पर भी उसके आत्मविश्वास में कोई कमी नहीं आयी।वे स्त्री मन के पारखी थे। उन्होंने बेटा -बेटी  में कोई फर्क नही  माना वे जानते थे कि घरों में फूट इसी कारण से पड़ती है। 'बेटों वाली विधवा ' की फूलमती ने जिद्द पकड़ ली और कहा -''विवाह तो मुरारीलाल के पुत्र से ही होगा, चाहे खर्च पांच हजार हों या दस हजार ।मेरे पति की कमाई है ।मैने मर -मर कर जोड़ा है। अपनी इच्छा से ही खर्च करूंगी ।तुम्हीं ने मेरी कोख से जन्म नही लिया,कुमुद भी उसी कोख से जन्मी है ।मेरी आँखों में तुम सब समान हो।" 


पुरानी परंपरानुसार  चलते आ रहे बेटा -बेटी के भेद तोड़कर समाज में स्त्री जाति को उसका स्थान व अधिकार दिलाने में प्रेमचंद पीछे नही रहे।उनकी  दृष्टि में स्त्री समाज का निर्माण करने के साथ-साथ संस्कार देती है, पोषण करती है कभी-कभी विद्रोह भी कर उठती है ।वह टूट कर फिर उठती है ।वह पुरुष मन को जानने वाली है।'कफ़न' के  माधव की चिंता का कारण भी यही है कि वह स्वर्ग में जाकर बुधिया को क्या जवाब देगा ? क्योंकि पत्नी तो वह उसकी थी ।  मुंशी   प्रेमचंद   विधवा विवाह के भी समर्थक रहे हैं।भारतीय समाज उसे सदैव सामाजिक, नैतिक तथा दैहिक रूप से हाशिये पर डालता आ रहा है ।यहां नारी विमर्श यह मानता है कि, नारी भी एक इनसान है,उसे भी हर सुख चाहिए अर्थात् उनका विमर्श  देह का विमर्श  भले ही न हो पर असमय आए हुए वैधव्य के बोझ को सहती हुई स्त्री अपने जीवन को निरर्थक न समझे।विधवा  स्त्री को  सत्ता देकर भी उसकी व्यथा को कम करने का प्रयास लेखक ने  'स्वामिनी' की रामप्यारी के  संदर्भ में किया है।इस रूप में प्रेमचंद का स्त्री -विमर्श अत्यंत सराहनीय है ।


कायाकल्प की मनोरमा सेवाभावना युक्त स्पष्टवादी नारी  पात्र है।उसके गुणों के विषय में बताते हुए यशोदानंदन चक्रधर से कहते हैं,'उसे कपड़े का शौक नहीं, गहने का शौक  नहीं, अपनी हैसियत को बढाकर दिखाने की धुन नहीं।सेवा कार्य में हमेंशा आपसे एक कदम आगे रहेगी।'  कायाकल्प (पृष्ठ 105)। वह उदार नारी पात्र है । 'निर्मला' उपन्यास निर्मला की वेदना और जीवन संघर्ष की कहानी है ।निर्मला का आदर्श त्याग, प्रेम, सहनशीलता और पतिपरायणता से परिपूर्ण  है ।वह अपने पिता के उम्र के पति के साथ  जीवन में यथा संभव संतुलन बनाए रखने का प्रयास करती है।पति के आरोपों को सहन करती है और अपने पुत्रों से असीम अनुराग रखती है ।वह अत्यधिक सहनशील  प्रवृत्ति की नारी है। रुक्मणी के तानों और तोताराम के संदेह बाणों को वह आराम से सह लेती है ।


इतना ही नही वह एक आदर्श सहेली भी है।सुधा उसके लिए कहती  हैः-''निर्मला ने मेरी बड़ी मदद की है ।मैं तो एकाध झपकी ले भी लेती थी, पर उसकी आँखे नहीं झपकी ।रात- रात भर बैठी या टहलती रहती थी ।उसके एहसान कभी न भूलूंगी" (निर्मला -पृष्ठ 091) इस  उपन्यास की कल्याणी पुत्र वत्सला नारी है बच्चों के प्रति उसकी चिंता वास्तविकता लिए हुए है --''बच्चों को किस प्रकार छोडकर चली जाऊः? मेरे इन लालों को कौन  पालेगा?ये किसके होकर रहेंगे? कौन इन्हे प्रातः काल  दूध और हलवा खिलायेगा ,कौन इनकी नींद सोयेगा और जागेगा?'' निर्मला की तरह सुधा भी एक पतिव्रता नारी है ।वह डॉक्टर साहब के संग अपना  पति धर्म निभाती है।इस उपन्यास की कृष्णा भी आदर्श भगिनी है। नारी  मनोविज्ञान की समझ प्रेमचंद में अपने समय से बहुत आगे की है।उस समय देश की स्थिति भी अच्छी नहीं थी।आज नारियों की प्रगति एवं परिवर्तन जिस ऊंचाई तक पहुंचा है वहां तक पहुंचने की पहल प्रेमचंद जी के नारी पात्रों में मिलती है। शिक्षित ही नहीं अशिक्षित नारियों में भी सूझ-बूझ, सही सोच मिलती है। 'गोदान' की अशिक्षित स्त्री चाहे धनिया, सिलिया,झुनिया हो या शिक्षित मालती, गोविंदी हो, 'रंगभूमि' की शिक्षित सोफिया हो या अशिक्षित सुभागी।


 


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