कविता // ये कैसा अचरज है


विजय सिंह बिष्ट


कहो ये कैसा अचरज है।
कहीं जन्म की खुशियां,
कहीं मृत्यु का रुदन है,
कहीं बज रही शहनाइयां,
कहीं राम नाम शत् है,
कहो ये कैसा अचरज है।


कहीं बरसों से सूखा पड़ा है,
कहीं घरों में पानी घुसा है,
सड़कों में नावें हैं चलती,
तड़पते लोग, जवानी मचलती,
अज्ञात शत्रु कोरोना पीछे पड़ा है,
बिना अस्त्र के मिटाने में अड़ा है,
कहो ये अचरज कैसे खड़ा है।।


कभी खुशियों के ठहके थे लगते,
जवानी के गीतों के मेले थे लगते,
वहीं दिन रात मायूसी है छाई,
न जाने कहां से विपता है आई,
नहीं रोजी-रोटी न नौकरी न चाकरी,
महंगाई की अलग से बनी लाचारी,
कभी किसी की रात होती  है काली,
किसी की होती हर दिन दिवाली,
कहीं पतझड़ होती निराली,
कहीं महकती फूलों से डाली,
कहो ये कैसा अचरज भरा है।।


भूखे पेट कहीं रहना है पड़ता,
गर्मी हो या सर्दी सहना है पड़ता,
नहीं साथ , किसी का दूरी बनाए,
जियें या मरें चाहे कहीं छूट जाएं,
कहीं किसी को कोरोना छू न जाए,
अपना साथी भी न देख पाए।
अजब सी दास्तान है इसने बनाई,
कहो कैसी ये विपता है आई।


कराल काल था गला दबाए,
सांसें रुकी  थी मुंह लटकाए,
भयंकर इतना न कोई देख पाए,
अपनों से अपनों की दूरी बनाए,
कैसा भयंकर यह रोग आया,
इसने सारी दुनियां को रुलाया।
सदियों तक नहीं हम इसे भुल पायें,
चलो कोरोना को मन से भगायें।।
      


 


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