क्या बोले रे जोगी
वी0 एस0 बिष्ट क्या बोले ये जोगी, तेरी वीणा का इकतारा, तारा बोले छोड़ दे जोगी, माया का चौबारा। दर दर भटके कहीं न अटके, नदिया की ज्यों धारा, ठाठ पड़ा सब रह जाता है, कूच करे जब बंजारा। दुनिया की यह भूल भुलैया, इसका आर न पारा। माया महाठगिनी साधु, नामुमकिन छुटकारा। शूरा ज्ञानी शाह रंक को, इसने चुन चुन मारा। क्या बोले रे जोगी , तेरी वीणा का इकतारा। राज गये दरवार गये, औ खाक हुआ सरमाया, जोड़ी लाखों की थी माया, साथ न कुछ ले पाया। माया के चक्कर में फंसकर, मिलता है सम्मान नहीं, नशा चढ़े जब दौलत का तो, रहता फिर कुछ ज्ञान नहीं, रानी ज्ञानी के चक्कर में, खत्म हुआ दरवारा। क्या बोले रे जोगी , तेरी वीणा का इकतारा। झूठे रिस्ते झूठे नाते, झूठ का ये बाजारा, जैसे आए वैसे जाए, छूटे सब संसारा, चलती फिरती इस मंडी में, बसे नहीं घरबारा, फिर क्यों… जाने कितनी बार बनी होगी बिगड़ी होगी बस्ती, मिट्टी में है आखिर मिलती सबकी एक दिन हस्ती, आनी जानी दुनिया है ए, चार दिनों का मेला, ज्ञानी है वह हंस हंस करके, सुख-दुख इसके झेला, प्यार से रहना और बनाए रखना भाईचारा। क्या बोली रे जोगी तेरा इकतारा। आंख खुली तो जागा जोगी, देखा