कविता // मैंने परिवर्तन को देखा
मैंने परिवर्तन को देखा नभ की कालिका में, चंद्रमा के धवल प्रकाश में। टिम टिमाते सितारों के समूहों में, आकाश गंगा की धवल धारा में। उगते और छिपते सूरज की लालिमा में, अमावस्या और पूर्णिमा के प्रकाश में। मैंने परिवर्तन को देखा।। षटृऋतुओं के श्रृंगार में, पतझड़ की बयार में, फूलों के रंग और सुवास में, हरी दूब पर पड़े ओंस कणों में, धानी खेतों की बिलहरी बयार में, चिड़ियाओं के मधुर संगीत में, हवाओं की मंथर सरसराहट में सृष्टि के निर्माता के ध्यान में, मैंने परिवर्तन को देखा।। बचपन की किलकारियों में, योवन के रस और उमंग में, बुढ़ापे की अनुभवी झुर्रियों में बनते और बिगड़ते रिश्तों में, मधुरता और कटुता के आभास में मैंने परिवर्तन को देखा।। गांवों की रौनक को देखा, खेत खलिहान लहराते देखे, आज गांव में ढके दरवाजे बंद ताले देखे, लहराते उन खेतों में कांटों के झुरमुट देखे। अपने दुःखों को भूल दूसरों के दुःख झेले, लुटा दिये नये जमाने ने बूढ़ों के हर मेले। माता के दुलार में पिता के प्यार में, ईश्वर के सौंदर्य भरे संसार में, मैंने परिवर्तन को देखा।