तापमान वृद्धि,जलवायु परिवर्तन और बिगड़ते पर्यावरण के खतरे से बेखबर हम

० ज्ञानेन्द्र रावत ० 
मौसम में दिनोंदिन आ रहे बदलाव को सामान्य नहीं कह सकते। दरअसल यह एक भीषण समस्या है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। समूची दुनिया इसके दुष्प्रभाव से अछूती नहीं है। इसका मुकाबला इसलिए जरूरी है कि हमारी धरती आज जितनी गर्म है उतनी मानव सभ्यता के इतिहास में कभी नहीं रही है। इससे यह जाहिर हो जाता है कि हम आज एक अलग दुनिया में रहने को विवश हैं जबकि हम यह भलीभांति जानते-समझते हैं कि यह खतरे की घंटी है। 

उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के बीच जलवायु में बदलाव का अंतर दिनोंदिन तेजी से बढ़ता जा रहा है जिसके काफी दूरगामी परिणाम होंगे। दुख तो यह है कि इस सबके बावजूद हम इसे सामान्य घटना मानने में ही लगे हुए हैं। यही नहीं तापमान में बढो़तरी और जलवायु में बदलाव को रोकने की दिशा में जो भी अभी तक प्रयास किए गये हैं, उनका कोई कारगर परिणाम नहीं निकल सका है। यह बेहद चिंतनीय है।
जहां तक दक्षिण एशिया का सवाल है, यह निश्चित है कि यदि तापमान वृद्धि चरम पर पहुंची तो इस इलाके मे हजारों लोग मौत के मुंह में जायेंगे। 2003 में योरोप और रूस की घटना इसका जीता-जागता सबूत है जबकि वहां तापमान बहुत अधिक नहीं था, तब तकरीब 70 हजार से अधिक लोग मौत के मुंह में चले गये थे। फिर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जीवाश्म ईंधन जलाने से मानव इतिहास में जितना उत्सर्जन हुआ है, उसका आधा बीते केवल 30 सालों में ही हुआ है। 

यह खतरनाक संकेत है। यदि 2015 में जारी वैश्विक तापमान बढो़तरी के 10 सालों के औसत पर नजर डालें तो पता चलता है कि औद्यौगिक क्रांति से पूर्व की तुलना में तापमान में 0.87 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गयी थी जो 2020 में यानी केवल पांच साल में ही वह बढ़कर 1.09 डिग्री सेल्सियस हो गयी। कहने का तात्पर्य यह कि केवल पांच साल में इसमें 25 फीसदी की बढो़तरी हालात की गंभीरता की ओर इशारा करते हैं।

 यदि ग्लेशियरों की बात करें तो बीते साल 2021 में उत्तराखंड के नंदा देवी ग्लेशियर के फटने से धौलीगंगा के बांध बहने से हुई भीषण तबाही को लोग अभी भूले नहीं हैं। दुनिया के वैज्ञानिक तो बरसों से चेता रहे हैं कि समूची दुनिया में तापमान में बढो़तरी के चलते ग्लेशियर तेजी से पिघल कर खत्म होते जा रहे हैं। दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला माउंट एवरेस्ट बीते 5 दशकों से लगातार गर्म हो रही है। इसके आसपास के हिमखंड तेजी से पिघल रहे हैं। सच तो यह है कि हिमालय के तकरीब 650 से भी अधिक ग्लेशियर दोगुनी रफ्तार से पिघल रहे हैं। 

कोलंबिया यूनीवर्सिटी के इंस्टीट्यूट आफ अर्थ के वैज्ञानिकों के अध्ययन से इस बात का खुलासा हुआ है कि भारत, नेपाल, भूटान और चीन के लगभग दो हजार किलोमीटर भूभाग में फैले तकरीब 650 से ज्यादा ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के चलते लगातार पिघल रहे हैं। 1975 से 2000 के बीच जो ग्लेशियर हर साल दस इंच की दर से पिघल रहे थे, वे 2000 से हर साल बीस इंच की दर से पिघल रहे हैं। इसलिए हिमालयी क्षेत्र की पारिस्थितिकी के व्यापक अध्ययन के साथ-साथ क्षेत्र में पर्यटन की गतिविधियों पर भी अंकुश समय की बेहद जरूरत है। अन्यथा इसके दुष्परिणाम बेहद भयावह होंगे।

देश के उत्तर के पर्वतीय क्षेत्र में लद्दाख के पैगोंग इलाके में स्थित ग्लेशियरों के पिघलने से इस इलाके में तबाही के बादल मंडराने लगे हैं। कश्मीर यूनीवर्सिटी के जियोइनफार्मेटिक्स डिपार्टमेंट के अध्ययन में इस बात का खुलासा हुआ है। इसके पीछे जलवायु परिवर्तन तो अहम कारण है ही, चीन द्वारा पेगोंग इलाके में झील पर पुल का निर्माण भी एक अहम समस्या है जिसके चलते पारिस्थितिकी का संकट भयावह होता जा रहा है। अहम सवाल यह है कि यह इलाका ग्लेशियरों से केवल छह किलोमीटर दूर है। 

इसलिए इस संवेदनशील पर्वतीय इलाके में मानवीय गतिविधियों पर रोक बेहद जरूरी हो गया है। यदि इस पर अंकुश नहीं लगा तो ग्लेशियर तो सिकुडे़ंगे हैं ही,यहां की मिट्टी में नमी कम हो जायेगी, इससे कृषि के साथ-साथ वनस्पति भी प्रभावित होगी। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। गौरतलब है कि लद्दाख का पैंगोंग का यह इलाका पर्यटन की दृष्टि से बहुत ही आकर्षक और मनमोहक है। यहां दुनिया की सबसे ऊंची खारे पानी की झील है जो सबसे ख्यात प्राप्त पर्यटन स्थल है।

 जम्मू-काश्मीर और लद्दाख के इस इलाके में कुल मिलाकर 12,000 के करीब ग्लेशियर हैं। ये ग्लेशियर 2000 के करीब हिमनद झीलों का निर्माण करते हैं। इनमें 200 में पानी बढ़ने से इनके फटने की आशंका है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। यदि ऐसा हुआ तो उत्तराखंड जैसी त्रासदी की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। पैंगोंग झील का 45 किलोमीटर का इलाका भारतीय क्षेत्र में आता है। पैंगोंग के इसी इलाके में चीन द्वारा लगातार निर्माण कार्य किया जा रहा है। पैंगोंग झील के पार पुल का निर्माण उसी का हिस्सा है।

विशेषज्ञों की चिंता का सबब यही है कि ग्लेशियरों को पिघलने से रोकने की खातिर इस संवेदनशील इलाके में ईंधन से चलने वाले वाहनों पर तत्काल रोक लगाई जाये। भारत के साथ लगातार दो सालों से चलते गतिरोध के कारण चीन यहां पर बेतहाशा निर्माण किया जा रहा है। पैंगोंग झील के पास चीन द्वारा जो निर्माण किये जा रहे हैं, उनकी दूरी ग्लेशियरों से केवल छह किलोमीटर ही है। ऐसे संवेदनशील इलाके में भारी पैमाने पर निर्माण कार्य किये जाने से ग्लेशियरों के पिघलने का खतरा बढ़ गया है। इससे लद्दाख के इस इलाके में गंभीर परिणामों से इंकार नहीं किया जा सकता।

ट्रांस हिमालयन लद्दाख के पैंगोंग इलाके में भारतीय सीमा में आने वाले इन 87 ग्लेशियरों में 1990 के बाद आयी कमी के शोध-अध्ययन जो जर्नल फ्रंटियर इन अर्थ साइंस में प्रकाशित हुआ है, के मुताबिक इस इलाके में स्थित 87 ग्लेशियर हर साल 0.23 फीसदी की दर से पिघल कर सिकुड़ते जा रहे हैं। सबसे ज्यादा चिंतनीय बात यह है कि यह इलाका भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील है। फिर इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि ग्लेशियरों के पिघलने से झीलों में पानी बढे़गा। उस हालत में उनमें सीमा से अधिक पानी होने से वह किनारों को तोड़कर बाहर निकलेगा।

 दूसरे शब्दों में झीलें फटेंगीं। उस दशा में पानी सैलाब की शक्ल में तेजी से बहेगा। नतीजन आसपास के गांव-कस्बे खतरे में पड़ जायेगे। यानी उनको तबाही का सामना करना पडे़गा। उत्तराखंड की त्रासदी की तरह उस दशा में सब कुछ तबाह हो जायेगा। इसलिए इस मुद्दे पर प्राथमिकता के आधार पर तत्काल कदम उठाने की जरूरत है। जहां तक हिमालयी ग्लेशियरों का सवाल है, आईपीसीसी चेता चुकी है कि हिमालय के सभी ग्लेशियर 2035 तक ग्लोबल वार्मिंग के चलते खत्म हो जायेंगे। मौजूदा हालात गवाह हैं कि हिमालय के कुल 9600 में से 75 फीसदी ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के चलते पिघलकर झीलों और झरनों का रूप अख्तियार कर चुके हैं। 

यदि यही हाल रहा तो आने वाले बरसों में बर्फ से ढकी यह पर्वत श्रृंखला बर्फ विहीन हो जायेगी। यह सब इस हिमालयी क्षेत्र में तापमान में हो रहे बदलाव, अनियोजित और अनियंत्रित विकास का परिणाम है। इसमें हिमालयी क्षेत्र के जंगलों में लगी आग की भी अहम भूमिका है। इससे निकले धुंए और कार्बन से ग्लेशियरों पर एक महीन सी काली परत पड़ रही है। यह कार्बन हिमालय से निकलने वाली नदियों के पानी में मिलकर लोगों तक पहुंच रहा है। यह मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत बडा़ खतरा है । यही नहीं गर्म हवाओं के कारण इस क्षेत्र की जैव विविधता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। 

यह बेचैन कर देने वाली स्थिति है। दरअसल जलवायु परिवर्तन के अलावा मानवीय गतिविधियां और जरूरत से ज्यादा दोहन भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक बहुत बडा़ कारण है। अब यह जगजाहिर है कि ग्लेशियरों के पिघलने से ऊंची पहाडि़यों में तेजी से कृत्रिम झीलें बनेंगीं और इन झीलों के टूटने से बाढ़ तथा ढलान पर बनी बस्तिओं तथा वहां रहने-बसने वाले लोगों पर खतरा बढ़ जायेगा। इससे पेयजल समस्या तो विकराल होगी ही, पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित हुए नहीं रहेगा जो भयावह खतरे का संकेत है।

वैज्ञानिक डी.पी.डोभाल कहते हैं कि यदि इस हिमालयी क्षेत्र में मानवीय गतिविधियां इसी रफ्तार से जारी रहीं तो आने वाले बरसों में हिमालय के एक तिहाई ग्लेशियरों पर मंडराते संकट को नकारा नहीं जा सकता। यानी यह ग्लेशियर खत्म हो जायेंगे। इससे पहाडी़ और मैदानी इलाकों के तकरीब 30 करोड़ लोग प्रभावित होंगे। इससे मानव जीवन और कृषि उत्पादन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पडे़गा। पेयजल संकट, बाढ़ तथा जानलेवा बीमारियों में इजाफा होगा।

 गौरतलब है कि इन ग्लेशियरों से निकलने वाली जीवनदायी नदियों पर भारत, नेपाल, भूटान और चीन की तकरीब 80 करोड़ आबादी निर्भर है। इन नदियों से पेयजल, सिंचाई और बिजली का उत्पादन होता है। यदि यह पिघल गये तो ऐसी स्थिति में सारे संसाधन खत्म हो जायेंगे और ऐसी आपदाओं में बेतहाशा बढो़तरी होगी। इसलिए जहां बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से प्राथमिकता के आधार पर लड़ना जरूरी है, वहीं ग्लेशियर से बनी झीलों से उपजे संकट का समाधान भी बेहद जरूरी है।

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