नागा साधुओं के विषय में आम धारणाएं और भ्रम को तोड़ता उत्कृष्ट उपन्यास

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मुज़फ्फर सिद्दीकी ० 
भोपाल "बचपन से ही मेरे मन में आकांक्षा थी कि मैं नागा साधुओं पर काम करूं। नागा साधु हर एक पल मेरे मन में जिज्ञासा जगाते थे किंतु उनके विषय में न तो मुझे आंकड़े मिल रहे थे और ना कोई संदर्भ ग्रंथ या पुस्तक। जब जनवरी 2012 में प्रयागराज में 55 दिनों का महाकुंभ का मेला भरा। इस मेले में जाने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। नागाओं के विभिन्न अखाड़ों में से जूना अखाड़े के महंत से मेरा साक्षात्कार हुआ। उन्होंने मुझे नागा पंथ की संपूर्ण जानकारी दी। इस प्रत्यक्ष जानकारी के आधार पर ही मैंने यह उपन्यास लिखा। न केवल नागाओं के विभिन्न अखाड़े बल्कि अघोरी पंथ, शक्तिपीठ का भी इसमें जानकारी युक्त वर्णन किया है।"

उक्त विचार संतोष श्रीवास्तव ने हिंदी भवन के महादेवी वर्मा सभागार में "उपन्यास लेखन का उद्देश्य एवं नागा साधु बनने की प्रक्रिया पर" एक प्रश्न के उत्तर में व्यक्त किये। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री संचालक तथा कार्यक्रम के अध्यक्ष कैलाश चंद्र पंत ने इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि "साहित्यकार एक संवेदन शील व्यक्ति होता है । यही कारण है कि संतोष श्रीवास्तव ने अपनी सूझ- बूझ से, अपनी काल्पनिक शक्ति से एक महत्व पूर्ण रचना रची है। नागा साधु मूलतः धर्म रक्षक सेना थी। अपनी तंत्र साधना के बाद ये लोग कई रहस्यमय कार्य करने लगे। यह उपन्यास उन्हीं रहस्यों को उजागर करता है।"

मुख्य अतिथि डॉ राजेश श्रीवास्तव, मुख्य कार्यपालन अधिकारी तीर्थ एवं मेला विकास प्राधिकरण, अध्यात्म मंत्रालय , मध्य प्रदेश प्रशासन ने कहा कि मैंने कई कुम्भ मेले पहले भी देखे हैं। अनेक साधु - संतों का सान्निध्य प्राप्त हुआ है। उनकी दिनचर्या को बहुत ही करीब से देखा है लेकिन इस उपन्यास को पढ़ने के बाद, साधु संतों के बारे में जानने की जिज्ञासा और बढ़ गई है। उन्होंने कैथरीन और विभिन्न पात्रों की मनोदशा की विवेचना करते हुए कहा कि " संतोष ने विभिन्न प्रयोग किए हैं जिस पर शोध किया जाना आवश्यक है।"

विशिष्ट अतिथि ने कहा कि मैंने समाज के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों से साक्षात्कार लिए हैं। उनकी ज़िन्दगी को नज़दीक से देखा है लेकिन आज की चर्चा के विमर्श ने मुझे एक नया उद्देश्य दिया है। वैसे भी इस पुस्तक को पढ़कर मेरे मन में साधुओं को कवरेज करने की जिज्ञासा बढ़ गई है। उन्होंने संतोष जी के जीवन को तुलसी के इस दोहे से तुलना की।

"तुलसी इस संसार में दुख सुख सबको होय
ज्ञानी काटे ज्ञान से मूरख काटे रोय ।"

मधुलिका सक्सेना 'मधु आलोक' , ने " कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया" उपन्यास के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करते हुए इस विमर्श को अपने उत्कर्ष पर पहुंचा दिया। उन्होंने कहा कि - "उत्कृष्ट साहित्य कृति में मानवीय संवेग होना जरूरी है। जो इस उपन्यास में है।"

डॉ. क्षमा पांडेय ने बताया कि मैं संतोष के व्यक्तित्व और कृतित्व से भली भांति परिचित हूँ। वे जब एक बार प्रण कर लेती हैं तो पीछे पलटकर नहीं देखतीं। मैंने उनका उपन्यास "मालवगढ़ की मालविका " भी पढ़ा है। जब एक बार पाठक पढता है तो पढता ही चला जाता है। वे अपने उपन्यास के पात्रों के साथ जीती हैं जब कहीं जाकर अपनी कलम उठाती हैं।

मुज़फ्फर सिद्दीकी ने सभी उपस्थित सुधीजनों का आत्मीय स्वागत किया। कार्यक्रम का शुभारम्भ महिमा श्रीवास्तव वर्मा के सुमधुर स्वर में सरस्वती वंदना से हुआ। आभार डॉ विनीता राहुरिकर ने व्यक्त किया।
अक्षरा पत्रिका की सह संपादक जया केतकी शर्मा ने कार्यक्रम को एक सूत्र में पिरोकर सभी को बांधे रखा।

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