किसी भाषा के बढ़ने का मतलब दूसरी भाषा का खत्म होना नहीं
० योगेश भट्ट ० "हर भाषा की एक शक्ति होती है। हमें अपनी भाषा की शक्ति का अहसास होना जरूरी है। हम देखते हैं कि हिन्दी की उर्दू के साथ एक ऐतिहासिक प्रतिस्पर्धा रही है। लेकिन हमें यह समझने की जरूरत है कि एक भाषा के बढ़ने का मतलब दूसरी भाषा का खत्म होना नहीं होता।" नई दिल्ली. हिन्दी में समाजविज्ञान और मानविकी की पूर्व-समीक्षित त्रैमासिक पत्रिका 'सामाजिकी' का पहला व्याख्यान इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में सम्पन्न हुआ। 'सामाजिकी' गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज और राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली की संयुक्त पहल है जो भारतीय समाज मे हो रहे परिवर्तनों को समझने और समझाने के लिए ज्ञान के गहन शोध पर आधारित पत्रिका है। यह पत्रिका हिन्दी भाषा में शोध आलेख, साक्षात्कार और पुस्तक समीक्षा को छापती है कार्यक्रम की शुरूआत में पत्रिका के संपादक प्रो. बद्री नारायण ने श्रोताओं को सामाजिकी और व्याख्यान का परिचय दिया। इसके बाद प्रो. फ्रेंचेस्का ओर्सिनी ने 'साहित्य के इतिहास की प्रासंगिकता : क्यों और कैसे?' विषय पर केन्द्रित वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा, "हर भाषा