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कविता // कोरोना और काव्य

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● डॉ• मुक्ता ● कोरोना और काव्य बन गये एक-दूसरे के पर्याय ऑन-लाइन गोष्ठियों का सिलसिला चल निकला नहीं समझ पाता मन क्यों मानव रहता विकल करने को अपने उद्गार व्यक्त शायद!लॉक-डाउन में नहीं उसे कोई काम काव्य-गोष्ठियों में वह व्यस्त रहता सुबहोशाम पगले!यह स्वर्णिम अवसर नहीं लौट कर आयेगा दोबारा तू बचपन में लौट कर बच्चों-संग मान-मनुहार मिटा ग़िले-शिक़वे तज माया-मोह के बंधन उठ राग-द्वेष से ऊपर थाम इन लम्हों को कर खुद से ख़ुद की मुलाक़ात कर उसकी हर पल इबादत मिटा अहं, नमन कर प्रभु की रज़ा को  अपनी रज़ा समझ  घर में रह,खत्म कर द्वंद्व और सुक़ून से जी अपनों संग 

शब्दाक्षर द्वारा ऑनलाइन ‘जश्न-ए-आजादी

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Dehradun दिवंगत आत्माओं की स्मृति में वृक्षारोपण

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Uttarakhand रोज़गार के अनेक अवसर पैदा किये जा सकते हैं

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जिस्म में तू जान तू ही है,प्रार्थनाओं में तू अज़ान तू ही है

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जयपुर में भारी बारिश से बाढ़ जैसे हालात

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गंगा जमनी तहज़ीब मैं मानूं ,पाखंड का खंडन करती हूँ

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