जीवन की एक चुभन
विजय सिंह बिष्ट लौटूं तो कैसे लौटूं सारे पथ भूल चुका हूं। जन्म लिया था जहां वहां छोड़ चुका हूं।। सजाया था जिन घरों को खंडहर कर आया हूं। लौटूं तो कैसे लौटूं सारी राहें तोड़ चुका हूं।। जीवन की आपाधापी में सारे सपने भूल चुका हूं। नाते रिस्ते तो दूर जन्म दाताओं को छोड़ चुका हूं। गांव गलियारों में जहां खेला छोड़ चुका हूं।। महलों की चाहत में श्यामल धरती छोड़ चुका हूं। लौटूं तो कैसे लौटूं सारे पथ भूल चुका हूं।। मंदिरों की मधुर घंटियां देवालय भूल चुका हूं। कोलाहली दुनियां में मैं स्वयं को खो चुका हूं। कैसे लौटूं उन राहों में जिनको मैं छोड़ चुका हूं। सपने आते उन खेतों के जिन्हें बंजर कर आया हूं। जननी जन्मभूमिश्च कैसे बोलूं जिसकी ममता छोड़ चुका हूं।। अपनी माटी अपनी धरती उसको भूल चुका हूं। कैसे लौटूं जिसको तन मन से भूल चुका हूं।। कैसे लौटूं मां की उस गोदी में जिनको भूल चुका हूं।। संम्बन्धों की वह भूल भुलैया छोड़ कर आया हूं। नकली नाते रिश्ते जोड़े जिन्हे समझ नहीं पाया हूं। नयी उमंगें अपना कर पुरानी यादें भूल चुका हूं।। सबसे बड़ा गम खाये जाता संस्कारों को भूल चुका हूं। लौटूं तो कैसे लौटूं सारे पथ भ